The power of thought

The power of thought

Sunday, December 30, 2012

बलात्कार एक बात


आज भी 
चिंतित नहीं हूँ मैं ,
जरा भी नहीं 
रोम-रोम 
मेरे आज भी 
कम्पन विहीन है ।।
प्रयास !!
पूरा था,
पर जो मजाल हो 
मेरी किन्ही 
आँखों में 
आयें आंसू एक बूंद हो ?
उपवास!!
सोचा था ,
लेकिन, पल बीतते 
क्षुदा-पूर्ति को 
खाना तो था ही ।
विरोध !!
करना तो था ,
लेकिन 
घर-के ,बाहर के, ऑफिस के,
देश के,राज्य के,विदेशों के 
ख़बरों को समय देना भी तो 
मज़बूरी है ।
नौकरी तो निभानी है,
विरोध !!
वो तो होता रहेगा ।।

पर किस बात का मुझको मलाल हो?
जुझारू क्यों कर अब मेरे जज्बात हो ?
क्या??
बलात्कार!       हत्या!    इन्साफ 
मेरे भाई 
जगतगुरु के इस देश में अब 

बलात्कार ! रोज मर्रा की ही बात है ।




Thursday, December 27, 2012

ये सुलझाने से आगे है



स्याह,सुर्ख से आगे है 
ये सुलझाने से आगे है 
उलझन में उलझन भर जाये है 
चूहा बिल्ली को खाए है 
सागर में बादल ते दिख जाये है 
आसमान में नाव उड़ जाये है 
यह स्याह सुर्ख से आगे है ।।

जो काले से भी काला हो 
वो काला जो उजियारे को भी 
कर जाता काला हो ।
नीला हो जाता काला है 
पीला हो जाता काला है 
पर काला तो खुद में काला है 
 ये सुलझाने से आगे है 
यह स्याह सुर्ख से आगे है ।।

तेजी से है यह बढता जाता
नीचे से उपर , मानो 
यों है उड़ता जाता । 
 फैलता विष फैलता है 
सिकुड़ता न जाने क्यों है ?
कल वहां है कल वहां है 
कल वहां भी है 
ये सुलझाने से आगे है 
यह स्याह सुर्ख से आगे है ।।

Sunday, December 23, 2012

उफान ,दूध और हम

                                                                       
यह जो है यह उफान है ठीक वैसा ही जैसा दूध में आता है । पर यह कब आता है तब जब दूध पूर्णतः गर्म हो चूका होता है, यहाँ से वापस जाने का कोई मार्ग नहीं पर सामने भी कोई एक सरल मार्ग नहीं । दूध में इस वक़्त पानी के कुछ छींटे मारे जाते है परिणामतः दूध अपना उफान शांत कर शांत हो जाता है ,पर कभी जब किसी का ध्यान न हो यह दूध उफनता बाहर आ जाता है और एक आखिरी परिस्थिति में वो आग जो इसे ऊष्मा दे रही होती है उसे ही बुझा दिया जाता है ।
आज दिल्ली में आग पर दूध ही है,जो हर तरह से उफान मार रहा है और स्पष्ट है की अब तीन मार्ग ही संभव है क्योंकि प्रतीत तो यही होता है की ऊष्मा तो ग्रहण हो ही गयी है । और यह ही संभव है यहाँ से की सरकार आरोपियों को जनता के अनुरूप सजा सुनाने को तैयार हो जाएगी और यह उफान शांत हो जायेगा ।
झारखण्ड में कल उफान मार रहे दूध ने 5 जीवाणुओं को समाप्त कर दिया । सन्देश स्पष्ट है की अब इस देश में यह स्वीकार्य नहीं,हर वह नौजवान जो उसी जाती से सम्बधित्त है जो की कसूरवार है आज इस उफान में खुद को पाक साफ कर रहा है । तो हम यह मान सकते है की वहाँ दूध बाहर आ गया ,काफी सारे सम्मानीय लोगो ने इसकी सराहना भी की परन्तु प्रश्न यह भी तो बनता है की क्या समाज को खुद ही इन्साफ करने का अधिकार मिल गया है ? आज यह लाखो लोगो की भावनाओं के समर्थन से साकार है अतः कोई भी इसके औचित्य पर सवाल तक नहीं करेगा परन्तु कल क्या होगा? आज यह गलत के खिलाफ है तो यह असंभव कदापि नहीं की कल गलत के विरोध में उठ रहे स्वरों के भी दबा न दिया जाये । भीड़ का इन्साफ सदैव ही सही होता तो मानव आज सभ्य होने का स्वांग न भर रहा होता ।
पर एक परिस्थिति और भी है यहाँ, यह दूध जो दिल्ली में उफान मार रहा है इस वक़्त का संपर्क आग से काट दिया जाये तो उस समय क्या होगा ? पर मुझे खुद ही संदेह है की यह कोई कारगर उपाय होगा । परन्तु मूल प्रश्न तो कुछ और ही है। इस के बाद जब पुनः हवसी बाहर निकलेंगे अपनी मांद से उस वक़्त क्या होगा ? क्या उस वक़्त तक यह उफान कायम रहेगा ? जब पीडिता के रक्त की बुँदे दिल्ली के बजाय अरुणाचल , असम, छत्तीसगढ़ या उड़ीसा के जंगलों को लाल करेंगी उस वक़्त क्या यह ऊष्मा उफान दे पायेगी ?
धनंजय चटर्जी के बाद जो शांत न हो सका क्या वो आज हो पायेगा ? और क्या इन्साफ कर रही यह भीड़ पुनः आम हो पायेगी ?
खैर वैसे असली दूध और इंसानों में कुछ तो फर्क रहेगा ही ,क्यों?

Wednesday, December 19, 2012

आओ गुस्सा करें


यह जो भी हुआ क्या उसके लिए वाकई पुरुष दंभ या जो भी कारण बताया जा रहा है वही दोषी है ? या कापुरुषता व नपुंसकता ? क्या समाज दोषी नहीं ? क्या लडकियों के माता-पिता दोषी नहीं ? क्या विद्यालय -विश्वविद्यालय दोषी नहीं ? क्या सरकार दोषी नहीं ? क्या हम उम्र दोषी नहीं ? क्या साहित्यकार दोषी नहीं या रचनाकार ? इस हमाम में वस्त्र धारण कर कौन खड़ा है? नग्नता तो हर ही और है अंतर : सिर्फ यही है कोई भौतिक नग्न है तो कोई वैचारिक।
हर जगह पुरुषों का यह कथन हर इस दुर्घटना के बाद प्रचलित हो जाता है "मैं शर्मिंदा हूँ " और उस पर नारी की यह टिपण्णी की "एक नारी की और से धन्यवाद " अजी छोड़िये यह बहाने और आइना देखिये । क्या वाकई हम शर्मिंदे हैं ? हाँ , क्युकी यह हमारी नपुंसकता को छिपाने का सबसे सरल उपाय है । अब यह तो एक रोज मर्रा की घटना बन चुकी है। जिन घटनाओ  को जगह नहीं मिली उनका क्या ? किस दिन के समाचार पत्र में किसी बलात्कार की खबर नही होती ,होती है प्रत्येक दिन होती है , पर एक नपुंसक क्या कर सकता है ,सिवा शर्मिंदा होने के ? अपनी पत्नी से , अपनी बहन ,अपनी बेटी अपनी माँ और खुद से ?
हम इसके आदि हो चुके है । दिल्ली में फिर एक मोमबत्ती जुलुस निकलेगा फिर से नारे लगेंगे,कल फिर  किसी जज का बयान आयेगा ,यह मामला सीबीआई को जायेगा,मुकदमा चलेगा पर फिर क्या ? क्या वाकई में   कोई उपाय है या हम केवल शर्मिंदा होने के आदि हो चुके है । हम गुस्सा कब करेंगे ? कब हम किसी समाधान की और चलेंगे ? आज एक लड़की आधी रात को बलात्कार की शिकार हो सकती है चाहे वो दिल्ली में हो या सिर्फ पांच हजार की आबादी वाले किसी गाँव में,और यह हम तब स्वीकारते है जब घर की कोई लड़की शाम के धुंधलके में अकेले बाहर जाने की जिद करती है और अंगरक्षक की तरह उसका 10 वर्षीय भाई उसके साथ जाता है । एक 10 वर्षीय बालक एक 20 वर्षीय नवयुवती का अंगरक्षक बना दिया जाता है । क्या यह प्रथा स्वीकार्य होनी चाहिए ? क्यूँ न विद्यालयों में लडकियों के लिए शारीरिक प्रशिक्षण अनिवार्य की अनिवार्य व्यवस्था की जाये ? क्यों न हर जिले में लडकियों के लिए इस तरह की व्यवस्था की जाये ? क्यों न बचपन से ही उन्हें मानसिक व् शारीरिक रूप से सुदृढ़ करने का प्रयास किया जाये ?
क्यों न हम अब और शर्मिंदा न हो ? क्यों न हम अब गुस्सा करे ? क्यूँ न अपने गुस्से को एक साकार रूप लेने का अवसर प्रदान करें
मैं आज शर्मिंदा  नहीं , मैं गुस्से में हूँ । और आप ?

Tuesday, December 18, 2012

"मैं चुप रहूँगा "


जो हो शराबा शोर का
बाजुओं के जोर का
क्रंदना सी झंकार का
तिलमिलाती सीत्कार का
"मैं चुप रहूँगा "

लुट रही हो चाहे कोई
खो कर  अपनी आबरू
न हुआ हूँ न मैं हूँगा
न होगा कोई आज उससे रूबरू
हर किसी का बलात्कार हो
इक या चाहे हजार हो
"मैं चुप रहूँगा "

नग्नता स्वीकार है
चाहे हो मच रहा सीत्कार है
वासना के किस्से सुनूंगा
बस तो फिर भी बस ही है
खुली सड़क का इंतज़ार है
उस सड़क पर मैं भी रहूँगा
हा हा  दिल्ली मैं भी करूंगा
लेकिन न भूलना इस बात को की
"मैं चुप रहूँगा "


Saturday, December 8, 2012

ह्रदय ह्रदय की दशा

घमंड हमेशा ही बुरा ही नहीं होता । 
विश्व के कुछ सबसे ज्यादा घमंडी लोगो का क्या हश्र हुआ ये सुने व पढ़े ।

रावण                 - बैकुण्ठ धाम 
कंस                    - बैकुण्ठ धाम 
हिरण्यकश्यप      - बैकुण्ठ धाम 
महिषासुर            - बैकुण्ठ धाम 
हिरण्याक्ष             -बैकुण्ठ धाम 

परन्तु जो "सरल ह्रदय" थे,उनका  क्या हुआ ?

विभीषण           - आज तक जीवित 
जाम्बवंत           - पता नहीं 
सुग्रीव                - पता नहीं 
विदुर                 - पता नहीं
परिक्षित             - सांप ने काट लिया 
हरिश्चंद्र              - राज पाट खोया,परिवार भी(बाद में हासिल दोनों ही हुए परन्तु क्या फायदा )

अतः यह आपका  स्वंय का निर्णय है की आपको क्या करना है व क्या बनना है ।


* शर्ते एवं  नियम लागु ।

Wednesday, December 5, 2012

किसकी प्रगति ,कैसी प्रगति

भारत की छवि आज  विश्व के सबसे तीव्र गति से विकास करने वाले राष्ट्र की है जो अपनी तकनीकी खूबियों के लिए जग-प्रसिद्ध हो रखा है । और एक भारतीय होने के नाते ये एहसास दिल को गुदगुदाने वाला ही होता है जब पता चलता है की हमारा देश एक मूल्य-प्रधान राष्ट्र है। जिस पश्चिम को हम बचपन से ही लालची समझते आये है जब यह देखते है की वो न्याय के आदर्शों का पालन कर रहा है वाकई में तो यह एहसास अलग सा ही होता है । हिल्टन हो या गुप्ता या हालिया ही कारावास की सजा पाए एक देश के प्रधानमंत्री,जो अपनी लालच के लिए जाना जाता है वही न्याय कर रहा है न की वो जो अपने आदर्श,न्यायिक मूल्यों के लिए जाना जाता है । यहाँ तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जाने वालों को ही सजा होगी । 
किसी तकनीक को बेचना तो जानते है हम परन्तु उसे ईजाद करने का रास्ता भूले बैठे है । सबसे सस्ती कार तो बना सकते है परन्तु पहली कार नहीं । क्या वजह हो सकती है की हम जो सस्ता "आकाश " जमीन पर लाने  की सोचते है तो वो भी एक षड़यंत्र का शिकार हो जाता है । अपने ही पेंशन को पाने को अपने ही  पढाये शिष्यों को रिश्वत देनी पड़े,यह सिर्फ अज के भारत में ही हो सकता है । 
न हम करना चाहते  है न ही सीखना,यही तो वजह हो सकती है ही हमारे धनकुबेरों ने बफेट को दान की सीख न देने की चेतावनी दी वो भी सरेशाम। अमेरिका जैसे धन के लोभी देश से हमे कम से कम अज एक चीज़ तो सिखने की जरुरत है ही ,किस तरह एक छब्बीस वर्षीय नवयुवक सबसे युवा अरबपति बन सकता है और उसी उम्र में अपनी आधी सम्पदा दान कर सकता है । यहाँ तो लोग राडिया टेप के बाहर आने से परेशान हो जाते है न की उसमें की गयी बातचीत से । 
जब तक मूल्यों को खाद न दिया जाये तब तक हम सिर्फ भारत की सिलिकॉन वैली बना सकते है पहली नहीं ।

Saturday, November 3, 2012

अधिकार या बंधन ?

"सिंदूर " एक सुहागन नारी का अधिकार है ,उसकी पहचान,सुहाग का निशान है।सदियों से भारतीय महिलाएं विवाह उपरांत सिंदूर,मंगल सूत्र का प्रयोग करती है,जो उनके विवाहित होने का प्रतीक है और सिर्फ उनपर ही लागु  होता है ,पुरुषों पर नही।परन्तु यह आया कहाँ से?यदि यह उपर वाले का आदेश है तो सिर्फ सनातन धर्मी ही क्यों पालन करें इसका?
यदि,यह सुहाग की ही निशानी है तो सिर्फ नारी ही क्यों?पति के लिए हो या संतान हेतु भूखी सिर्फ नारी ही क्यों? कोख से अगर पुनः लड़की ही जन्मी तो नारी ही क्यों जल मरे?आश्चर्य है की आज  भी अपने प्रेम प्रदर्शन हेतु किसी को भूखा रहना पड़े तो।वो प्रेम ही क्या जो प्रेयसी को तड़पाता रहे।और यदि यह वाकई में प्रेम ही है तो क्या पुरुषों को अधिकार नहीं या उनका कर्त्तव्य नहीं की वो भी अपना प्रेम प्रदर्शित करें? कोई नर अगर करे तो वह आदर्श पति माना जाता है,उसी तरह जैसे कुछेक दयालु अंग्रेज शासकों ने गुलामों के प्रति दयालुता दिखाई।
मुझे जानकारी नहीं और यह स्वीकारने में मुझे हर्ज भी नहीं,परन्तु प्रश्न यह है की यह सारे बंधन महिलाओं पर ही क्यों ?अधिकतर महिलाएं मुझसे सहमत नहीं,उन्हें लगता है यह संस्कृति है पर वह तो सती होने की भी थी।
पुरुष प्रधान समाज में,पुरुष आरोपित मान्यताएं कब तक संस्कृति बन चलती रहेगी? इक्कीसवीं सदी की नारी भी कब तक इस चक्र्व्युःह में फंसती रहेगी ? आखिर कब तक ?







Friday, September 28, 2012

"यह "तालियाँ बजाएगा

इस कदर है क्यूँ सोचता तू?
खुद को उनसे है क्यों तौलता तू ?

उनकी थाली होगी ही लाखों में 
है चिंता तेरी ही बस उनकी ही बातों में 
व्यर्थ ही तू है चिंता में गला जा रहा
उनका विमान तेरे ही लिए तो ,
है सात समंदर पार जा रहा ।

तेरी उन्नति को ही सभाएं होंगी 
जिसमें उनके इर्द-गिर्द परिचारिकाएं होंगी 
तू सोचता है इसमें उनका फायदा है 
"हे मुर्ख! वो तो तेरे सेवक हैं जो तेरे 
सिर्फ तेरे ही तरफ से उन सेवाओं का लुत्फ़ लेते है "

पर हे जालिम,निर्दयी,खुदगर्ज 
तुझे क्यूँ नही हैं उनकी खुशियाँ गंवारा ??
यकीं कर उनकी सुविधाओं का कोई अंश तेरी भी झोली में आएगा 
करदाताओं का कर यूँ ही न थोड़े जायेगा ।

तब तक तू इंतज़ार कर 
अपनी फटी धोती का ही उपयोग कर 
याद रख वो सेवक तू स्वामी है 
भूख,पीड़ा,दरिद्रता का तू ही तो वारिश है 

पर यदि यह तुझे स्वीकार न हो 
कर परिश्रम,उठ बन महान 
शामिल हो ले उन सेवकों संग 

पर याद रख 
"जो तुने भी मुहं मोड़ा तो वो पल भी आएगा 
जब काल की कालिमा से तू खुद  तेरी 
गर्दन नपवायेगा "
और "यह " खड़ा हो 
जोर जोर से नारे लगाएगा और तालियाँ बजाएगा ।।

Thursday, September 20, 2012

"यहाँ पेशाब करना मना है "

भारत के किसी भी शहर में जायें, गाँव या महानगर । किसी भी व्यक्ति से बात कर कुछ समझाने का प्रयास करें वह आपको ऐसी हिराकत भरी नजरों से देखेगा की आपको अपने वजूद पर ही शर्म आ जाये| और यह पूरा ही देश ऐसे विद्वानों से भरा पड़ा है, पर अहम सवाल यहीं खड़ा होता है , जब सब ही इतने समझदार हैं तो फिर क्यूँ समूचा शहर इसे ही महानुभावों से विनती करते तस्वीरों से अटा हुआ है ?
कहने को तो हम संभ्य है परन्तु अगर विचार करें जो जो सबसे ज्यादा विनती करता हुआ निवेदन है (जिसे कहीं कहीं देख कर ऐसा लगता है की अब उदारवादी धड़े से गरमपंथी अलग हो चुके है )
-"यहाँ पेशाब करना मना है " मैं आपसे शर्त लगा कर कह सकता हूँ की आप समूचे उत्तर भारत का भ्रमण कर आओ और एक भी ऐसा शहर खोज निकालो जहाँ यह विनती चस्पाई न गयी हो । "यहाँ थूकना मना है" यह साथ ही साथ प्रतिस्पर्धा करता हुआ पाया जाता है गोया मानों इंसानों में यह होड़ लगी हो हम थूक कर अपने मुखारविंद से इस शहर को खूबसूरत बना सकता हूँ या,,,,,,,,,समझ तो आप गए ही होंगे ।
"अपनी जान की चिंता कर हेलमेट पहन कर चल " "सीट-बेल्ट बांध कर यात्रा करें " यह भी कुछ महसूर होते जुमलों में शुमार होते जा रहे है । परन्तु मजाल है की हमारे कानो में जूं तक रेंग जाये। अब अगर ऐसे निवेदनो से ही मैं बातें मानना शुरू कर दूँ तो फिर हमारे शहर को ऐसे अनूठे जुमलें कहाँ से पढने को मिलेंगे । कुछ ऐसा ही विचार शायद हमारे बुद्धि वाले मित्रों का हो गया है शायद ।
 लेकिन इसमें हमारे जैसे नासमझों का ही सबसे ज्यादा नुकसान होता है ....कभी अगर किसी शोर्ट-कट के चक्कर में कोई गली पकड़ ली तो हो जाती है हमारी छुट्टी। मुझें याद है बचपन में मेरे दोस्त महावीर का चुनाव कुछ इसी तरह से करते थे "कौन सबसे ज्यादा देर तक इस गली में रह सकता है ""कौन उस कोने में खड़ा हो सकता है "
मेरे पुराने शहर में एक गली थी जिसका असली नाम तो शायद मुझे याद भी नहीं पर इतना याद है हम उसे "पेशाब वाली गली " कहा करते थे,क्यूँ ? क्युकी वो उसका खुला ऐलान था मेरे 100 मीटर के दायरे में से भी शांति पूर्वक गुजर कर तो दिखाओ ।
वो दिन बीते ,मैं पटना ,दिल्ली ,मुंबई घूम आया पर  ये जुमला मेरा पीछा करता ही रहा । अब मैं सोच रहा हूँ क्या कभी भी ऐसा कोई शहर विकसित होगा यहाँ जहाँ यह विनती न पढने को मिले "यहाँ पेशाब करना मना है"

Monday, September 17, 2012

भारत : धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र

भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है । आज़ादी की तुरंत बाद ही कुछ सुनहरे पाश्चात्य सिद्धांतों को अंगीकार करते हुए हमने धर्मनिरपेक्षता को भी स्वीकारा ।और क्या ही इससे अच्छी बात और कुछ हो सकती है की यहाँ कोई भी किसी को कोई धर्म स्वीकार या पालन करने पर मजबूर नहीं कर सकता ।
स्वाधीनता प्राप्त हुए 6 दशक हो गये पर हम अपने शासकों को "राज-धर्म" का पालन करने पर मजबूर नहीं कर सकते,शिक्षक अपने विद्यार्थियों से विद्यार्थी-धर्म और विद्यार्थी उनसे शिक्षक-धर्म की आशा तक नहीं कर सकते । यही तो वजह है की माता-पिता अब अपने पुत्र से पुत्र-धर्म की उम्मीद नहीं कर सकते ।
और यह सूची न जाने कितनी लम्बी हो जाये ...!!!
धर्म हाथी है और उसे परिभाषित करने वाले अंधे जो उसे अपने अपने स्पर्श के आधार से परिभाषित कर गए और कर रहे है । धर्म तो एक सभ्यता है,एक पद्धति है,जीवन जीने की कला जो मनुष्य को पर हित को सर्वोपरि रखते हुए कार्य करने पर उन्मुक्त रखता है । धर्मं है क्या ? विष्णु की पूजा या शिव की ? या  काली को प्रसन्न करने का प्रयत्न ...या गिरिजो व् मस्जिदों में आश्रय ? ये मजहबी है ...धार्मिक नहीं । धर्मं को तो हमने  ही मंदिर में बंद कर दिया और आज यहाँ ये विश्वास रखे हुए है की बिना धर्म के यहाँ लोग अपना धर्म(कर्तव्य ) निभायें ।
 यह एक छलावा से बढ़कर और क्या हो सकता है ?
हम उस मकड़ी की तरह छटपटा रहे है जो एक अति विशाल व् आकर्षक जाल बना रही हो और खुद ही उसमे जा फंसी हो फिर भी उसे काटने के विचार से ही डर रही हो ।
तो आयें तब तक हम डरते हैं और जीतें है या डरते-डरते जीते हैं अपने कर्तव्यों को भूल ।
  

Friday, August 17, 2012

प्राणों की चिंता

 ये दुनिया बलिदान चाहती है ।प्रत्येक परिवर्तन किसी न किसी की शहादत पर ही निर्भर करता है और परिवर्तन लाने की कोशिश करने वालों को खुद अपनी जान बचने का तो सोचने का भी हक नहीं ।
जी नहीं,ये पंक्तियाँ किसी बहुत बड़े विचारक ने नहीं कही ये उद्गार है दुनिया का,इसमें रहने वालों का,हमारा ।
नहीं,न ये क्या कह रहे हो ?? अजी छोड़िये ये बहाने ।
आज के समाचार-पत्रों की एक सुर्खी  है"असान्जे के बारे में " जिसे पढते ही मुझे पुराने दिन याद आ गये जब असान्जे ने शरण के लिए आवेदन कर रखा था। बड़े बड़े विद्वानों का उससे तुरंत ही मोह भंग हो गया ।
"अजी बोलिए जरा ,ये भी कोई बात हुई जरा से प्राण संकट में दिखे तो निकल गयी सारी बहादुरी "
"उसे कम से कम ऐसा कोई कायरता भरा कम नही करना चाहिए था ""
बिलकुल कोई भी जो ऐसा कोई संघर्ष कर रहा हो अपने प्राणों के बारे में सोचने की मुर्खता भी कैसे कर सकता है।अजी ये तो पापी है जो अपने बारे में  भी सोच ले।हमारी बात अलग है हम सिर्फ अपनी ही चिंता करेंगे देश,दुनिया जाये जले अपनी बला से।
कुछ ऐसा ही नजरिया रामदेव के भक्तों का हो गया था जब रामदेव तथाकथित रूप से अपने प्राण बचाने को  स्त्री-वेष धर नाकाम चेष्टा कर रहे थे  और पुनः फिर उनके सहयोगी आचार्य बालकृष्ण के प्रति जब वो अपने प्राण बचाते बचाते किसी तरह आश्रम पहुंचे ।
न हमें संतोष नहीं हुआ भला किसी सन्यासी को अपने प्राणों की क्या चिंता?? अरे भले मानुष प्राणों की चिंता तो देवताओं को भी हुआ करती है जो उन्हें संकट में पा जा पहुंचते है  विष्णु के सम्मुख । देवाधिदेव महादेव भी तो भस्मासुर से प्राण बचाने हेतु विष्णु को पुनः सुंदरी बना बैठे थे।कोई कथा सुनाने या किसी का पक्ष लेने का कतई भी कोई इरादा नहीं तो बस उन कुछ लोगो का पक्ष रख रहा हूँ जो अपने प्राणों की चिंता करते हुए भी इस दुनिया व् समाज के बारे में सोचने का हौंसला तो रखते है । और रही बात की उन्हें प्राणों की चिंता क्यों?? तो कारण तो हम खुद ही है ...जिन्होंने आज़ादी के लिए अपने प्राण दे दिए आज कितना याद रखते है हम उन्हें ....एक स्मारक किसी गली के मोड़ पर, बस। उन सब का परिवार आज दाने दाने को तरस रहा है..और हाँ जो शहीद नहीं हुए उनके बारे में कुछ कहने को मेरा मन नहीं ।।
तो बंधू जब हम खुद कुछ नहीं कर रहे सिवाय नारे लगाने के तो जो कर रहे हैं उन्हें अपने प्राणों की चिंता की इजाजत भी दे ही देते हैं ........क्यूँ??

Wednesday, August 15, 2012

स्वतंत्रता दिवस:याद का बोझ

स्वतंत्रता दिवस ! हर वर्ष यह शुभ दिन आता है और हर जिम्मेदार भारतीय की तरह मैं भी सुबह से सन्देश व मिठाइयाँ वितरण एवं प्राप्ति हेतु प्रयास करता हूँ ।पर एक प्रश्न जो पिछले कई वर्षो की तरह इस वर्ष भी मेरे सम्मुख है ,आज मैं आप सबके सामने भी रखता हूँ "क्या स्वाधीनता दिवस सिर्फ खुशियाँ ही लेकर आता है या इसके पीछे कोई अत्यंत ही गूढ़ भाव भी छुपा हुआ है ?"
क्या ये दिन बस ये याद करने को है की हम आज के दिन ही आज़ाद हुए थे या ये हमें यह भी सोचने पर विवश करता है की हम गुलाम ही क्यूँ कर हुए थे? अगर यह सिर्फ आज़ादी का जश्न भर ही है तो क्या ये वाकई में उचित है ?
नहीं , मैं इस उत्सव के खिलाफ बिलकुल भी नहीं पर मैं यह जानना चाहता हूँ की जिस तरह से हम इस पर्व को सम्पन्न करते हैं क्या वो ही उचित है या आज गुलामी से मुक्ति के इतने वर्षो बाद शायद हम यह पर्व किसी और तरीके से मनाना चाहे ।
इस वर्ष फिर से बहस होगी"यह आज़ादी हमें बिना खड्ग-ढाल के मिली या नहीं? ""भगत सिंह या गाँधी ?" पर यह बहस शायद ही कहीं हो "आखिर यह राष्ट्र दासता की जंजीरों में जकड़ा ही क्यूँ ? ""क्यूँ हम पर एक के बाद एक विदेशी हुकूमत थोपी जाती रही और हम  उसे स्वीकारते रहे ?""जो हमें 1857 में ही मिल जाना चाहिए था उसके लिए 1947 तक 90 वर्षों का सफ़र क्यूँ तय किया गया "
मैं अपने हर भारतीय मित्र को शुभ-कामनाएं तो दे देता हूँ पर विदेशी मित्रो को इस दिन की महत्ता बताने में न जाने क्यों एक संकोच सा होता है ? शायद इसलिए क्योंकी उन्हें फिर यह भी याद दिलाना पड़ता है की हाँ कभी जगद्गुरु रहे इस राष्ट्र को छोटे से टापू पर रहने वाले मुट्ठी भर लोगो ने अपने कदमो तले रौंद रखा था ।
शायद हम इस संकोच से कभी  उबर न सके पर उन कारणों पर सार्थक विचार कर अपने वंशजों को कम से कम इस संकोच के भार की कुछ पोटलियाँ हलकी कर सकते है ।

                                                             जय हिंद 

                                                           वन्दे-मातरम 

Tuesday, July 17, 2012

यात्रा जारी है

"भइया ,ऐसा कैसे हो गया की कुछ जानवर मनुष्य बन गए,और कुछ नहीं ?" मेरी छोटी बहन ने मुझसे पूछा ।
मैं सोच में पड़ गया।अपने बचपन में सोचा करता था पर आगे समय नही मिला और मैंने इस विषय पर सोचना बंद कर दिया था।परन्तु उपर वाले की लीला वो सवाल फिर से मेरे सामने आ गया । इसके पहले की मैं अपनी बुद्धि का प्रयोग करता उपर वाले ने मेरी मुश्किल हल कर दी "गुवाहाटी में जवाब दे कर"।
वाकई उस दिन ऐसा ही लगा मानों जो विकास के क्रम में पीछे रह गए थे उनकी पशुता उन्हें खीच रही हो। अगर कोई कॉमिक्स पड़ता रहा हो तो वो "कोबी-भेड़िया" के घटना क्रम से समझ सकता है । एक लड़की का शोषण करने को सब उतारू थे ।लेकिन फिर जनता की जागरूकता (जो हमेशा विलम्ब से ही आती है) की वजह से प्रशासन हरकत में आया और जाने लगे सब एक एक कर शोभा-यात्रा को । जनता नि:संदेह प्रशंसा की पात्र है,आखिर हर ऐसी घटना के बाद वही है जो मोमबत्ती लेकर सड़क पर उतरती है,सोशल-मीडिया पर अपना गुस्सा दिखाती है,और तो और किसी कमजोर पर शक होने पर जान भी ले लेती है। लेकिन एक दूसरा प्रश्न जो मुझे हमेशा परेशान करता है वो ये की जब वो खास दुर्घटना घट रही होती है उस समय ये सर्व-शक्तिमान जनता कहाँ सोयी रहती है?
ये भी कमाल ही हो गया,निकला था एक प्रश्न का उत्तर खोजने पर यहाँ एक सवाल ही मिल गया। देखता हूँ इन दो सवालों के जवाबों के तलाश में और न जाने कितने सवालों से रूबरू होना पड़े ।फिर तो अभी कोई जवाब नहीं दिया जा सकता क्यूंकि -अभी तो  "यात्रा जारी  है 

Monday, July 9, 2012

सबका मालिक एक !!


भूखी प्यासी आँतों के बीच 
पथराई आँखों के बीच 
बेबस बिलखती रूहों के बीच 
क्या है सबका मालिक एक??

कोई करोड़ों के महलों में सो नही पाता है 
कहीं कोई वृक्ष तले सोने की कोशिश करता है 
कोई पकवान पचाने को हाकिम बुलाता है 
कोई हाकिम के अभाव में भूखा मर जाता है 
फिर क्या हो सकता है इन सबका मालिक एक ??

कोई गरीबों पर सारी दौलत लुटा देता है 
कोई किसी बुढ़िया का गल्ला ले भाग जाता है 
कोई प्यार ,प्रेम,मानवता,का सन्देश देता है 
कहीं कोई मजलूमों पर गोलिया चलाता है 
क्या संभव है की हो इन सबका मालिक एक??

अस्पतालों में भी है असमानता 
कहीं जच्चा-बच्चा मरते हैं द्वार पर 
तो है कोई आई.सी.यू  के आरामगाह में ।
कोई डॉक्टर तुम्हारी किडनी और जान ले जायेगा 
तो कोई रिक्शा वाला बचाने तुम्हारी जान अपनी दे जायेगा ।।
तो वो प्रश्न फिर सर उठाता  है 
की क्या है वाकई 
हम सबका मालिक एक??

Sunday, July 8, 2012

दान

राष्ट्र उत्थान हेतु,
था लगा कुबेरों का मेला 
वहां आ पहुंचा एक भिखारी लिए अपना थैला मटमैला ।
नब्बे फीसदी दान करने वाले 
बड़े कुबेर ने थी ज्यों अपनी आँखे तरेरी,
छोटे सभी कुबेरों ने उस गरीब की बाँहें मरोड़ी 
"अब यहाँ ऐसा क्या बचा जो तू देगा,
या तू यहाँ से भी भीख ही लेगा "

निर्धन उस भिखारी ने खोल थैला 
सौंप दिया अपना कलेजा ।
उसकी वहीँ मौत हो गयी 
धनकुबेरों की शाम ने न आयी कोई परेशानी 
भारतमाता के कलेजे में एक फांस हो गयी ।।


Tuesday, July 3, 2012

लेकिन .....आज

माँ की लोरियां 
पिता की झिडकियां 
दादा-दादी की कहानियां 
और दीदी की चुराई मिठाइयाँ 
अब आज याद आती हैं ।।

स्कूल से भाग दोस्तों संग 
बाग जा जामुन चुराना,
नदी में जा गोते लगाना 
पर्वतों पर दौड़ना 
और सिनेमाहाल में दस की खरीद 
बीस की सीट पर बैठ देखना ,
अब आज याद आते है ।।

रात में छत पर बैठ 
भूतों से डरना,आपस में लड़ना 
दूध से भरे ग्लास को नाली में देना 
बिल्लियों को देख खुद में दुबकना 
और किसी की आहट सुन झट से सो जाना 
अब आज वो याद आते हैं ।।

चलो आज बीते कल में चलते हैं 
फिर से किसी को ठगते हैं 
मछलियों संग डुबकी लगा 
बादलों संग उड़ जाते है ।
लेकिन .....आ!!!!!!

Tuesday, June 19, 2012

सही बात

वह एक गरीब,मेधावी नहीं परन्तु परिश्रमी छात्र था । अपने माता-पिता की तीन संतानों में सबसे बड़ा । दसवीं की परीक्षा में उसे सत्तर फीसदी अंक हासिल हुए। आगे पढ़ाने की चाह में उसके पिता ने अपनी आधी जमीन  गिरवी रख ऋण लिया और उसे महाविद्यालय भेजा ।
प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने पर भी उसे कहीं रोजगार न मिला । माता-पिता के सपने धुंधले होने लगे।किसी दिन वह कहीं जा रहा था तभी उसने देखा एक घर में आग लग चुकी है अपने साहस  का परिचय देते हुए वह उस आग में छलांग  अंदर फंसे बच्चे को बाहर निकल लाया । लेकिन एक चिंगारी उसकी आँख में चली गयी ।
कुछ दिनों बाद उसका सम्मान समारोह था । वक्ता ने उसकी प्रशंसा करते हुए नकद पुरस्कार की घोषणा की साथ ही उसकी आँखों के उपचार की भी ।
वह वक्ता के कान  में फुसफुसाया "आँख रहने दो एक आँख चली जाएगी परन्तु नौकरी तो मिल जाएगी "
वक्ता को सांप सूंघ गया। पर उसकी बात भी सही थी । भयावह रूप से ही सही पर सही तो थी ही ।
लेकिन क्यूँ?

Tuesday, May 15, 2012

दो शब्द खुद से

स्तब्ध हूँ ,
अपनी ही जमीं पर  पिंजरे में कैद हूँ अभी 
इस  कैद  से बाहर निकलूँ  कैसे 
इसी उधेड़बुन में व्यस्त हूँ अभी 

30 करोड़ भुजाओं वाली 
इस  माँ को गुलाम  बनाया कैसे ?
यूँ लगता हैं जंगल  में मेमनों ने 
शेर को पकड़ कर घंटी पहना दी है ।

हाथों में अभी शक्ति नहीं 
पर हुआ मैं भी अभी निर्बल नहीं 
घुप्प अँधेरा छाया  है 
पर आँखों के अंदर मेरी अभी भी रौशनी है ।

गिरा जरुर हूँ 
पर उठ खड़ा होऊंगा 
दोनों हथेलियों में अनंत इस 
ब्रम्हांड के दो छोर पकडे हूँ खड़ा मैं 




Saturday, May 12, 2012

कसाब का न्याय

"भले ही सौ कसूरवार छुट जाये परन्तु एक  बेकसूर को सजा नहीं मिलनी चाहिये " न्याय  के इस  अनूठे सिद्धांत पर कार्य करती है हमारी न्याय पालिका और भारत  जो प्राचीन  काल  से ही अपनी उदारता के लिए जाना जाता है आज एक अपराधी के लिए अपने आदर्शो से कैसे मुहं मोड़ सकता है ?यही तो वो गुण  है जो भारत  को अनूठा बनाता  है । सोचिये जरा कितनी अनूठी है ये प्रथा "जो विदेशी हमला करने आया था जब उसे न्यायपूर्ण  सजा दिलाने में यकीन रखती  है तो अपने देश के निर्दोष लोगो से कितनी उदारता से पेश आती  होगी "। जरा सोचिये पुरे विश्व में भारत की क्या छवि निर्मित  हुई होगी ?
कसब गुनाहगार है,आज नहीं तो कल  सर्वोच्च  न्यायालय  उसे सजा सुना ही देगा । पर उसे दण्डित करने की आपाधापी में हम  क्यूँ अपने हाथ  और कपडे गंदे करे ?अस्तु हमें अपने न्यायप्रणाली पर यकीन  तो करना ही चाहिये जो विश्व की सर्वोत्तम  हैं क्यूँ की न्याय संगत  है तो हो कर ही रहेगा और यदि नहीं हुआ  तो वो न्याय  ही नहीं और हमारी न्यायप्रणाली न्याय  करने के लिए ही निर्मित और जानी जाती है ।
जरा सोचिये एक  को जल्दबाजी से दण्डित  कर  दिया  गया तो क्या उसके उपरांत  यहाँ एक  नयी प्रथा ही प्रारंभ  नहीं हो जाएगी जिसमे हो सकता है की  हजारों मुजरिमों को दण्डित  कर  दिया  जाये पर इस  सम्भावना को नकारने की हिम्मत  भी कोई नहीं करेगा की ये 2-4 निर्दोषों की बलि भी ले लेगी । यदि हममें से हर कोई जज  बन  फैसला सुनाने ही लगा तो वो अराजकता फैलेगी जो थामे न  थमेगी ।
 अतः प्रभु  नाम  स्मरण  कीजिये और कसाब  को सजा मिलने तक  इंतज़ार कीजिये ।और हाँ अपने न्यायालयों पर  विश्वास  बनाये रखें क्यूँ की जैसा मैं पहले भी कह चूका हूँ 
"न्याय संगत  है तो हो कर ही रहेगा और यदि नहीं हुआ  तो वो न्याय  ही नहीं"

Thursday, May 10, 2012

क्यूँ खामोश हो तुम

हर पूजा में पूज्य हो तुम 
हर घर का आधार हो तुम 
बेटी,दीदी,पत्नी और माँ हो तुम 
ममता और प्यार का साकार रूप हो तुम ।।

पूरे परिवार को एक  सूत्र में पिरोती हो तुम 
कभी देश  की प्रथम  नागरिक  तो कभी अंतरिक्ष  यात्री हो तुम 
समय  पर रण चंडी तो प्रणय -वेला में रम्भा हो तुम ।।

समस्याओं में सरस्वती ,शय्या पर उर्वशी 
गृह-व्यवस्था में लक्ष्मी व चौके में अन्नपूर्णा 
पुत्र के लिए  साक्षात्  पार्वती हो तुम 
लेकिन 
अपने ही कोख  में नष्ट होती अपनी ही छवि के लिए 
क्यूँ खामोश  हो तुम???

Sunday, April 8, 2012

वक्त परिवर्तन का

सम्पूर्णता कही नहीं होती , न  कभी हो सकती है । ये तो बस आदर्श है । यह जानते हुए भी की इसे पाना नामुमकिन है इसे पाने की कोशिश मानव सदैव से करता आया है और इसी प्रक्रिया में परिवर्तन आते रहते है साहसियों के कंधो पर।
1192  पृथ्वीराज चौहान की हार के साथ  यह देश दुसरो की कठपुतली बन कर रह गया। अनंत काल से ही वीर सपूत उगलने वाली यह धरती बाँझ बन गयी।वीरता,गौरव व शौर्य एवं ज्ञान की अतुलनीय थाती वाले इस धरती की संतानें आज खुद के इतिहास पर विश्वास एवं गर्व करना भूल गयी बिलकुल उसी राजा की तरह जो खजाने में अरबों की सम्पति होने के बावजूद अपने विरोधियों द्वारा अकाल एवं गरीबी का विश्वास दिलाये जाने पर एक भिखारी की ही तरह मारा गया। जिस बात के लिए दुनिया हमारा लोहा माना करती थी आज खुद हम ही उस पर यकीन करना भूल चुके है। हमारी नैतिकता,ज्ञान ,शौर्य ,साहस व वीरता हमसे दूर जा रही है । दूसरों की कहानियों पर यकीन कर हम खुद पर यकीन करना भूल चुके है और पतन की और अग्रसर हैं ।
किसी भी छलांग के लिए पैरों के नीचे ठोस धरातल मिलना अनिवार्य है बिना जिसके बड़े से बड़ा खिलाडी भी असहाय है ,उसी तरह भविष्य की इस अनंत संभावनाओं में छलांग लगाने के लिए हमारे पास भी हमारे इतिहास का धरातल हो अनिवार्य है ।
समय आ गया है की हम परिवर्तन के चक्र में यकीन रखते हुए अपने इतिहास में झांके पर आँखे अपनी हो न की दुसरो की दी हुई । संभावनाएं अनंत है ,मौके सीमित और समय.........!!!!
अब वक्त है बदलने का जिससे जो हमे न मिला वो हम कम से कम अपने आने वाली संतानों के लिए छोड़ सके।


*(यह लेख  Stayfree "Time to Change" के लिए लिखा गया है
https://www.facebook.com/sftimetochange)


Wednesday, April 4, 2012

पूर्ण-ग्रहण

अंधकार है,घनी रात है 
हर तरफ बस हाहाकार है 
छा चूका अब राष्ट्र में
यह ग्रहण अब पूर्ण है ।।


जहाँ तलक में देखता हूँ,
प्रकाश  का न बाकि निशाँ हैं ।
महावीर निगलती सुरसा का
मुख अब फैला चहुऔर है ।।
छा चूका अब राष्ट्र में 
यह ग्रहण अब पूर्ण है ।।

अमावस्या ही सुलभ है
पूर्णिमा अब विलुप्त है
हर अँधेरी रात बाद
फिर एक अँधेरी रात है ।।
छा चूका अब राष्ट्र में
यह ग्रहण अब पूर्ण है ।।

शिव को पूजो शम्भू को पूजो
दुर्गा या काली को पूजो
शापयुक्त महावीर सम्मुख
आना बाकि बस जाम्बवंत है।

छा चूका अब राष्ट्र में
यह ग्रहण अब पूर्ण है ।।

पर होते होते घट जाएगी
यह कालिमा भी हट जाएगी ।
हजारों काली रातों बाद भी
एक धुंधली सुबह तो आयेगी 
इन ग्रहणों के बाद भी 
नव सूर्य-रश्मियाँ चमचमायेंगी ।
पूर्णता को मिटाने क्या हुआ उदित एक सूर्य है !!!
या
अब भी यह ग्रहण पूर्ण है???





Thursday, March 22, 2012

क्यूँ हो भारतीय होने का गर्व ,अब??

भारत ,आर्यावर्त,हिन्दुस्थान जितने इस राष्ट्र के नाम हैं उससे कहीं पुरानी और गहरी संस्कृति और इतिहास की थाती भी  है । एक राष्ट्र जो कभी जगद्गुरु था जिसका डंका हम आज भी पीटते हैं । यूँ तो हम विश्व की छठी परमाणु शक्ति है और दक्षिण-एशिया की सबसे बड़ी शक्ति भी,अर्थव्यवस्था के मामले में हम चुनिन्दा ट्रीलियन डॉलर देशो के साथ शामिल है संयुक्त राष्ट्र में हमारी दावेदारी भी प्रमुख है परन्तु हमारी रीड़ की हड्डी गायब है । किसी देश के होने का मतबल बस उसके विश्व के मानचित्र पर कहीं पाए जाने या उसकी भू-आकृतियों की विशालता ही नही वो निर्भर करती है उसकी सभ्यता,उसकी संस्कृति पर।
"कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी " किसी ने कहा था । 1092 ई. पृथ्वीराज चौहान की हार के साथ ही यह देश विदेशियों के हाथों में चला गया मुक्ति मिली 1947 में। 855 वर्ष की ग़ुलामी जिसमे यवनों ,मुगलों,यूरोपियों ने हमे बेरहमी से लुटा हमारी संस्कृति को मिटाने की कोशिश की पर सफल न हो सके । गर्व से अपना उन्नत मस्तक उठाये ये अपनी गौरवशाली संस्कृति पर अभिमान कर रहा था , उस पीड़ादायक समय में भी इस धरती ने अपने गर्भ से तुलसी,कबीर,विवेकानंद,दयानंद जैसे विद्वानों ,प्रताप,शिवा जी सुभाष-भगत सिंह जैसे वीर उत्पन्न कर दिए पर आज यह एक भी सपूत उत्पन्न करने मैं अक्षम हो गयी है । जो काम विदेशी नहीं कर सके उसे यही के सच्चे सपूतों  ने कर दिया भारत को उसकी जड़ों से काट दिया।
आज आप 10 जगह से फटी जींस पैंट पहन दिल्ली या मुंबई भ्रमण कर लो कोई आपकी और देखेगा भी नहीं पर यदि आप कुर्ता-पायजामा या धोती पहन कर निकल गए तो पूरा शहर आपको यूँ देखेगा की मानो या तो आप बहुत  बड़े वीर हो या अव्वल दर्जे के पागल । टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाले तो सराहे भी जायेंगे पर अगर गलती से आप अच्छी हिंदी बोल लेते हो तो फिर तो बन गए आप व्यंग्य के पात्र । 121 करोड़ के देश में आज संस्कृत बोलने वालों की संख्या है बमुश्किल 50000 ,अपनी संस्कृति को छोड़ हम वाकई विकास कर रहे है।अपनी पहचान भूल कौन सा विकास हासिल करना चाहते है हम?
जल्द ही हम 9-10 फीसदी की विकास दर हासिल कर लेंगे पर वो बस 1 देश बन राष्ट्र तो कब का अपनी संस्कृति को तलाशते हुए नष्ट हो चूका होगा । शायद तब हम वापस लौटना चाहे , शायद न लौटना चाहे पर एक बात तो तय है और वो है हमारा पछताना लेकिन प्रायश्चित संभव न होगा ।इसी पर किसी शायर ने लिखा भी है
"तेरी तबाही की नश्तर
 निकले है आसमानों से
संभल जाओ ऐ हिन्दुस्तान वालो
वर्ना ढूंढे न मिलोगे फसानों में "

Monday, March 12, 2012

सपनो का हमारा घर

घर । किसी इन्सान की मूलभूत आवश्यकता तो किसी के लिए मुनाफा कमाने का सबसे सरल साधन । रोटी-कपडा-मकान इनमें से कोई भी एक न हो तो जीवन अधुरा सा लगता है , वहीँ कुछ के पास एक नहीं दो नही बल्कि दस-दस मकान रहते है । जी नहीं ,रहने के लिए नहीं बल्कि इस लिए की वो किसी जरुरत मंद को वो मकान कहीं ऊँचे दाम पैर बेचकर बेलगाम मुनाफा कम सके।
भारत में यदि कोई व्यवसाय तयशुदा मुनाफा का वादा करता है , क्रिकेट के अलावा तो वो है रियल-एस्टेट का ।जैसे जैसे भारत की आबादी बदती जाएगी और बदती जाएगी इनकी क्रय-शक्ति और टूटती जाएँगी संयुक्त परिवार की परंपरा वैसे ही बदती जाएगी यहाँ अपने घर की तलाश ।जहाँ दिल्ली,मुंबई जैसे महानगरों और इनके उपग्रह शहरों में सम्पति खरीदने की सोचा भी भी दुश्वार होता जा रहा है वहीँ पटना,पुणे और इलाहाबाद में भी मकान की कीमते उसेन बोल्ट से प्रतिस्पर्धा कर रही है । एक सरकारी अफसर के मुताबिक "घर का सौदा अगर क़ानूनी तरीकों से ही हो तो आम आदमी 20 लाख में ही वह घर ले सकता है जिसके लिए उसे अभी 50 लाख देने पड़ रहे है,लेकिन ध्यान कौन दे ?
जिस तरह भोजन के अधिकार को ध्यान में रखते हुए राशन की कालाबाजारी को संगीन अपराध माना गया है जरुरत है उसी तरह रियल-एस्टेट के काला -बाजारी को भी संगीन बनाने का ।कोई भी इन्सान 1  से अधिक मकान नहीं खरीद सकता ,सम्पति के सरे लेन-देन को चेक के या प्लास्टिक मनी के माध्यम से से मान्यता मिले जिस से सर्वोच्च बैंक इन सभी हस्तांतरण की निगरानी कर सके ।साथ ही ये बात भी सुनिश्चित हो की जितनी रकम की रजिस्ट्री करवाई गयी हो उस के अतिरिक्त और कुछ भी लेन-देन न हो।
सुनने और पढने में भले ही यह काफी आदर्श प्रतीत हो और लागु करने में असंभव सा प्रतीत हो यह ध्यान करने योग्य है की यह प्रतीत ही हो रहा है असंभव है नहीं । और वैसे भी जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी अगर कुछ पाने से वंचित है तो उस देश को भागीरथी प्रयास से कम क्या करना होगा?

Sunday, March 11, 2012

डाल दूँ खुद को ही जंजीरों में

आज के कलयुग में ,
मशीनों के शोर में 
बढती भुखमरी में 
दिन प्रतिदिन घटते रोजगार के शोर में 
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

8-9 फीसदी विकास की दौड़ में 
गरीबी-भुखमरी से तंग किसानों के क्रंदन में 
32 रुपयें में दिन गुजारने की जुगत में 
रुपयें-डालर-युआन की होड़ में 
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में 
हर दिन कम होते हजारों के बीच में 
ड्रेगन से भयभीत बाघ की दहाड़ में 
गुम होती पायलों की छनकार में
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

हरपल होते शहीदों के अपमान  में
खल प्राप्य पकवान सुगंधों में
ताज से मुंबई लोकल की दूरी में
घरवालों के हरपल के इंतजार में 
हूँ मैं अब भी  दौड़ता जाता ।।

पर रुकुंगा अब जाने कहाँ जाकर 
सोचता हूँ डाल दूँ अब खुद को ही जंजीरों में  ।।     

Monday, March 5, 2012

पर धरती नहीं फटी

"तुम सभी वन्चित्तो को न्याय मिलेगा " धरती पुत्र ने कहा ।
"हाँ... हाँ...तुम सही हो  "....
"तुम सभी ...हमारे साथ बैठा करो ...."
"तुम देव-पुत्र हो....हमारे भगवान "
यह सब सुन धरती पुत्र की बेटी भी बहुत आनंदित हुई ।
"हमारा रिश्ता खून का हैं ...रोटी का.....बेटी का .."
हमारा जीवन धन्य हैं ...जो हम तुम से मिले "
"पिता जी मैंने सुरेश से विवाह कर लिया ..." धरती पुत्र की बेटी 
प्रसन्न हो धरतीपुत्र ने मिठाई मंगवाने को कह पूछा "सुरेश कौन  है ?"
"एक हरिजन जिसके घर जाते रहते हैं आप , जो आपका सबसे प्रिय है "
धरतीपुत्र की आँखों में खून उतर आया । पर धरती नहीं फटी ।।

Sunday, March 4, 2012

वो थी कूड़े के ढेर पर

चीखती,लहरती दोपहर में 
बरसा कर अपने कहर को 
हो उन्मुक्त जब सूरज छा रहा था
वो थी कूड़े के ढेर पर ।।

कर पैदा बना लावारिस 
फेंक कर उस ढेर पर 
जब लौट चूका था उसका जन्मदाता 
रो रही थी वो उस कूड़े के ढेर पर ।।

मनमोहती,खिलखिलाती 
गोधुली के उस पहर में,
लौटती कारों के बीच
थी बिलखती वह कूड़े के ढेर पर ।।

सभ्यता की दे दुहाई 
हैं समाज बन दुश्मन बैठा 
जिसकी न थी कोई गलती 
वो क्यूँ पड़ी थी कूड़े के ढेर पर ।।

रात्रि के अंतिम प्रहर में 
मार समाज के मुहं पर चांटा 
बन के आए मुक्तिदाता
 नोच खाया उस नन्ही जाँ को

चीख से दहली थी दिल्ली 
फिर क्यों नहीं थी कोई रूह कांपी ?

बन के एक श्वान  ग्रास
हुआ निवारण उसका त्रास

खाली था अब कूड़े का वो ढेर ।
पर थी कभी पड़ी वो उस कूड़े के ढेर पर 



Friday, March 2, 2012

दवा की जात

रामलोचन शर्मा ब्राम्हणों के अलावा किसी का छुआ हुआ पानी भी नही पीते थे ।
अगली सुबह उन्हें 102' बुखार था ।
  "डॉक्टर ,तुम वैसे हो किस खानदान से "
   "शर्मा जी...लोग उसे अछूत खानदान कहते हैं , मेरे पिता लाशों को आग दिया करते थे "
   "डॉक्टर ...जल्दी से दवा दो , प्राण हैं की छुटने को निकल रहे हैं "
और शर्मा जी ने डॉक्टर के हाथ से दवा पीकर चैन पाया ।



Sunday, February 5, 2012

असली खतरा !!

वह  एक कार-मैकेनिक था । उसके बाप की मौत कार-दुर्घटना से हुई । उसकी बीवी और छोटे बच्चों को कार ने धक्का मार दिया ,उनकी वहीँ मौत हो गयी । उसकी माँ और सास-ससुर कार पलटने से मर गए ।
           काम करते करते उसकी नजर बाहर गली में  चल रहे बिच्छु  पर पड़ी । कहीं रात में उसके काटने से उसकी मौत न हो जाये ,इस डर से उसने तुरंत उसे कुचल कर मार दिया ।
          उसके बाद वो वापस कारों के बीच लौट आया ।


Sunday, January 29, 2012

मानव कितना मानव !!!!!

मनुष्य ईश्वर की श्रेष्ठ  रचना है , यह एक ऐसी धारणा है जिसे धारण कर ये पूरी मनुष्य जाति आत्म-मुग्ध हो रही है । मनुष्य या मानव कितना गिर सकता है , हम इसकी कल्पना भी नही कर सकते ।
  3 साल की बच्ची जिसे देख कर किसी को भी उसपर ममता आ सकती है , जिसे हम दुलारना पसंद करेंगे , उस चंचला बालपन को भी हवस का शिकार बना कर हम क्या साबित करना चाहते है ? अपनी दादी की उम्र की महिला जिन्हें देख कर सामान्यता कोई भी इंसान आशीर्वाद की कामना करेगा को भी अपनी हवस मिटाने का एक जरिया भर समझना इंसानियत को कहाँ ले जा कर कहाँ खड़ा  करेगा ??
   मानव और दानव ..काफी सूक्ष्म अंतर है दोनों के मध्य । अपने कर्मों के माध्यम से देवता बनना चाहे ही कितना कठिन हो , दानवता को गले लगाना काफी सरल प्रतीत होता है । सारे बुरे और पापों के मध्य जीवन बीता  कर ,उनसे अपनी आँखों को फेर कर क्या हम ये उम्मीद लगाये बैठे है की अगर कहीं ईश्वर की सत्ता है तो वो हमें इस जीवन के बाद स्वीकार कर लेगी ? किसी जंगल में अगर किसी एक भी जानवर को कोई शिकारी अपना निशाना बनाता है तो पूरा जंगल रोता है , यहाँ एक दलित महिला सिर्फ अपने दलित होने के कारण सारे बाज़ार नंगी हो पिटती है और पूरा देश तमाशा देखता है । 
   2  वर्ष पूर्व पटना में एक महिला को  वहां के व्यस्ततम जगह "गाँधी मैदान " पर निर्वस्त्र कर भरी दोपहर पीटा गया हजारों लोगो के सामने । ऐसा नहीं है की वहां मौजूद सभी लोग तमाशा ही देख रहे थे कुछ लोगो ने हिम्मत भी दिखाई और उस "मनोरंजक नज़ारे " को अपने कैमरे और मोबाइल में कैद कर लिया ताकि उसे बाद में अपने दोस्तों को दिखा सके। ऐसा क्यों हो गया है की हमारी कोई भी जिम्मेदारी नहीं , क्यूँ हर खूबसूरत लड़की को हम बस अपनी प्रेमिका ही बनाना चाहते है ,क्या वो बहन नहीं बन सकती ? क्यों समाचार में किसी असहाय इंसान का समाचार पढ़ कर हम अगला पन्ना खोल लेते है , क्यों हम इत्मिनान से बैठे रहते है ? 
   क्यूँ हम कर्मों से भी मानव बनने का प्रयास नहीं करते ? क्यों हम विश्वास और ईमान से नहीं जी सकते ?



Saturday, January 28, 2012

कहाँ है गाँधी

गाँधी की आत्मा पुनः लौट कर यह देखने आई की क्या गाँधी अब भी लोगों के दिलों में हैं ?
            उसने देखा अब वो बस जेबों और दीवारों पर ही हैं । कहीं और नहीं ।


Thursday, January 26, 2012

भेड़िये की दयालुता

"तुने मुझे गाली क्यों दी रे "भेड़िये ने बकरी के मेमने से पुछा ।
"मैंने.....नहीं ...कभी नहीं ...माँ कसम "
"तो तेरे बाप ने दी होगी "
"..........." मेमना रोने लगा ।
"अबे रो मत ...जा खेल "
अगले ही पल मेमना भेड़िया की जयजयकार करता जा चुका था । भेड़िये की दयालुता के किस्से जंगल में हर तरफ थे ।

अरे हाँ .....2  महीने बाद जंगल में आम चुनाव भी थे ।

Thursday, January 12, 2012

जंगल-राज

भेड़ों के मतों के सहारे जंगल का राजा बने भेड़िया ने शपथ-ग्रहण करते ही अपना पहला आदेश दिया |
   "जंगल की सभी भेड़ों का तत्काल सर-कलम कर दिया जाये "



Monday, January 9, 2012

सुपरस्टार

उसका नया गीत हर किसी की जबान पर था | वह स्टार बन चुका था |
               अगले ही हफ्ते हर मोबाइल में किसी दुसरे गीतकार  का नया गीत  धूम  मचा  रहा  था |


Monday, January 2, 2012

अच्छा राजा !!!

लक्ष्मण ने बीस साल बाद फिर लंका लौट कर वहां का दौरा  किया |
  "आप का पुराना राजा नीच और कपटी  था ....नया राजा धर्मात्मा  हैं   "
एक लंका वासी "पर रावण ने हमें सोने का महल दिया था .....अभी हम कुटिया में हैं "