The power of thought

The power of thought

Tuesday, May 15, 2012

दो शब्द खुद से

स्तब्ध हूँ ,
अपनी ही जमीं पर  पिंजरे में कैद हूँ अभी 
इस  कैद  से बाहर निकलूँ  कैसे 
इसी उधेड़बुन में व्यस्त हूँ अभी 

30 करोड़ भुजाओं वाली 
इस  माँ को गुलाम  बनाया कैसे ?
यूँ लगता हैं जंगल  में मेमनों ने 
शेर को पकड़ कर घंटी पहना दी है ।

हाथों में अभी शक्ति नहीं 
पर हुआ मैं भी अभी निर्बल नहीं 
घुप्प अँधेरा छाया  है 
पर आँखों के अंदर मेरी अभी भी रौशनी है ।

गिरा जरुर हूँ 
पर उठ खड़ा होऊंगा 
दोनों हथेलियों में अनंत इस 
ब्रम्हांड के दो छोर पकडे हूँ खड़ा मैं 




3 comments:

  1. गिरा जरुर हूँ
    पर उठ खड़ा होऊंगा
    दोनों हथेलियों में अनंत इस
    ब्रम्हांड के दो छोर पकडे हूँ खड़ा मैं...

    हिन्दी कविता की यह कडी वाकई मे सुन्दर है....

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  3. धन्यवाद मित्र,बस इसी तरह अपना प्यार,सुझाव और आशीर्वाद देते रहे बस यही अनुरोध है |

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