The power of thought

The power of thought

Sunday, March 11, 2012

डाल दूँ खुद को ही जंजीरों में

आज के कलयुग में ,
मशीनों के शोर में 
बढती भुखमरी में 
दिन प्रतिदिन घटते रोजगार के शोर में 
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

8-9 फीसदी विकास की दौड़ में 
गरीबी-भुखमरी से तंग किसानों के क्रंदन में 
32 रुपयें में दिन गुजारने की जुगत में 
रुपयें-डालर-युआन की होड़ में 
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में 
हर दिन कम होते हजारों के बीच में 
ड्रेगन से भयभीत बाघ की दहाड़ में 
गुम होती पायलों की छनकार में
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

हरपल होते शहीदों के अपमान  में
खल प्राप्य पकवान सुगंधों में
ताज से मुंबई लोकल की दूरी में
घरवालों के हरपल के इंतजार में 
हूँ मैं अब भी  दौड़ता जाता ।।

पर रुकुंगा अब जाने कहाँ जाकर 
सोचता हूँ डाल दूँ अब खुद को ही जंजीरों में  ।।     

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