The power of thought

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Thursday, March 22, 2012

क्यूँ हो भारतीय होने का गर्व ,अब??

भारत ,आर्यावर्त,हिन्दुस्थान जितने इस राष्ट्र के नाम हैं उससे कहीं पुरानी और गहरी संस्कृति और इतिहास की थाती भी  है । एक राष्ट्र जो कभी जगद्गुरु था जिसका डंका हम आज भी पीटते हैं । यूँ तो हम विश्व की छठी परमाणु शक्ति है और दक्षिण-एशिया की सबसे बड़ी शक्ति भी,अर्थव्यवस्था के मामले में हम चुनिन्दा ट्रीलियन डॉलर देशो के साथ शामिल है संयुक्त राष्ट्र में हमारी दावेदारी भी प्रमुख है परन्तु हमारी रीड़ की हड्डी गायब है । किसी देश के होने का मतबल बस उसके विश्व के मानचित्र पर कहीं पाए जाने या उसकी भू-आकृतियों की विशालता ही नही वो निर्भर करती है उसकी सभ्यता,उसकी संस्कृति पर।
"कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी " किसी ने कहा था । 1092 ई. पृथ्वीराज चौहान की हार के साथ ही यह देश विदेशियों के हाथों में चला गया मुक्ति मिली 1947 में। 855 वर्ष की ग़ुलामी जिसमे यवनों ,मुगलों,यूरोपियों ने हमे बेरहमी से लुटा हमारी संस्कृति को मिटाने की कोशिश की पर सफल न हो सके । गर्व से अपना उन्नत मस्तक उठाये ये अपनी गौरवशाली संस्कृति पर अभिमान कर रहा था , उस पीड़ादायक समय में भी इस धरती ने अपने गर्भ से तुलसी,कबीर,विवेकानंद,दयानंद जैसे विद्वानों ,प्रताप,शिवा जी सुभाष-भगत सिंह जैसे वीर उत्पन्न कर दिए पर आज यह एक भी सपूत उत्पन्न करने मैं अक्षम हो गयी है । जो काम विदेशी नहीं कर सके उसे यही के सच्चे सपूतों  ने कर दिया भारत को उसकी जड़ों से काट दिया।
आज आप 10 जगह से फटी जींस पैंट पहन दिल्ली या मुंबई भ्रमण कर लो कोई आपकी और देखेगा भी नहीं पर यदि आप कुर्ता-पायजामा या धोती पहन कर निकल गए तो पूरा शहर आपको यूँ देखेगा की मानो या तो आप बहुत  बड़े वीर हो या अव्वल दर्जे के पागल । टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाले तो सराहे भी जायेंगे पर अगर गलती से आप अच्छी हिंदी बोल लेते हो तो फिर तो बन गए आप व्यंग्य के पात्र । 121 करोड़ के देश में आज संस्कृत बोलने वालों की संख्या है बमुश्किल 50000 ,अपनी संस्कृति को छोड़ हम वाकई विकास कर रहे है।अपनी पहचान भूल कौन सा विकास हासिल करना चाहते है हम?
जल्द ही हम 9-10 फीसदी की विकास दर हासिल कर लेंगे पर वो बस 1 देश बन राष्ट्र तो कब का अपनी संस्कृति को तलाशते हुए नष्ट हो चूका होगा । शायद तब हम वापस लौटना चाहे , शायद न लौटना चाहे पर एक बात तो तय है और वो है हमारा पछताना लेकिन प्रायश्चित संभव न होगा ।इसी पर किसी शायर ने लिखा भी है
"तेरी तबाही की नश्तर
 निकले है आसमानों से
संभल जाओ ऐ हिन्दुस्तान वालो
वर्ना ढूंढे न मिलोगे फसानों में "

Monday, March 12, 2012

सपनो का हमारा घर

घर । किसी इन्सान की मूलभूत आवश्यकता तो किसी के लिए मुनाफा कमाने का सबसे सरल साधन । रोटी-कपडा-मकान इनमें से कोई भी एक न हो तो जीवन अधुरा सा लगता है , वहीँ कुछ के पास एक नहीं दो नही बल्कि दस-दस मकान रहते है । जी नहीं ,रहने के लिए नहीं बल्कि इस लिए की वो किसी जरुरत मंद को वो मकान कहीं ऊँचे दाम पैर बेचकर बेलगाम मुनाफा कम सके।
भारत में यदि कोई व्यवसाय तयशुदा मुनाफा का वादा करता है , क्रिकेट के अलावा तो वो है रियल-एस्टेट का ।जैसे जैसे भारत की आबादी बदती जाएगी और बदती जाएगी इनकी क्रय-शक्ति और टूटती जाएँगी संयुक्त परिवार की परंपरा वैसे ही बदती जाएगी यहाँ अपने घर की तलाश ।जहाँ दिल्ली,मुंबई जैसे महानगरों और इनके उपग्रह शहरों में सम्पति खरीदने की सोचा भी भी दुश्वार होता जा रहा है वहीँ पटना,पुणे और इलाहाबाद में भी मकान की कीमते उसेन बोल्ट से प्रतिस्पर्धा कर रही है । एक सरकारी अफसर के मुताबिक "घर का सौदा अगर क़ानूनी तरीकों से ही हो तो आम आदमी 20 लाख में ही वह घर ले सकता है जिसके लिए उसे अभी 50 लाख देने पड़ रहे है,लेकिन ध्यान कौन दे ?
जिस तरह भोजन के अधिकार को ध्यान में रखते हुए राशन की कालाबाजारी को संगीन अपराध माना गया है जरुरत है उसी तरह रियल-एस्टेट के काला -बाजारी को भी संगीन बनाने का ।कोई भी इन्सान 1  से अधिक मकान नहीं खरीद सकता ,सम्पति के सरे लेन-देन को चेक के या प्लास्टिक मनी के माध्यम से से मान्यता मिले जिस से सर्वोच्च बैंक इन सभी हस्तांतरण की निगरानी कर सके ।साथ ही ये बात भी सुनिश्चित हो की जितनी रकम की रजिस्ट्री करवाई गयी हो उस के अतिरिक्त और कुछ भी लेन-देन न हो।
सुनने और पढने में भले ही यह काफी आदर्श प्रतीत हो और लागु करने में असंभव सा प्रतीत हो यह ध्यान करने योग्य है की यह प्रतीत ही हो रहा है असंभव है नहीं । और वैसे भी जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी अगर कुछ पाने से वंचित है तो उस देश को भागीरथी प्रयास से कम क्या करना होगा?

Sunday, March 11, 2012

डाल दूँ खुद को ही जंजीरों में

आज के कलयुग में ,
मशीनों के शोर में 
बढती भुखमरी में 
दिन प्रतिदिन घटते रोजगार के शोर में 
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

8-9 फीसदी विकास की दौड़ में 
गरीबी-भुखमरी से तंग किसानों के क्रंदन में 
32 रुपयें में दिन गुजारने की जुगत में 
रुपयें-डालर-युआन की होड़ में 
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में 
हर दिन कम होते हजारों के बीच में 
ड्रेगन से भयभीत बाघ की दहाड़ में 
गुम होती पायलों की छनकार में
हूँ मैं हरदम दौड़ता जाता ।।

हरपल होते शहीदों के अपमान  में
खल प्राप्य पकवान सुगंधों में
ताज से मुंबई लोकल की दूरी में
घरवालों के हरपल के इंतजार में 
हूँ मैं अब भी  दौड़ता जाता ।।

पर रुकुंगा अब जाने कहाँ जाकर 
सोचता हूँ डाल दूँ अब खुद को ही जंजीरों में  ।।     

Monday, March 5, 2012

पर धरती नहीं फटी

"तुम सभी वन्चित्तो को न्याय मिलेगा " धरती पुत्र ने कहा ।
"हाँ... हाँ...तुम सही हो  "....
"तुम सभी ...हमारे साथ बैठा करो ...."
"तुम देव-पुत्र हो....हमारे भगवान "
यह सब सुन धरती पुत्र की बेटी भी बहुत आनंदित हुई ।
"हमारा रिश्ता खून का हैं ...रोटी का.....बेटी का .."
हमारा जीवन धन्य हैं ...जो हम तुम से मिले "
"पिता जी मैंने सुरेश से विवाह कर लिया ..." धरती पुत्र की बेटी 
प्रसन्न हो धरतीपुत्र ने मिठाई मंगवाने को कह पूछा "सुरेश कौन  है ?"
"एक हरिजन जिसके घर जाते रहते हैं आप , जो आपका सबसे प्रिय है "
धरतीपुत्र की आँखों में खून उतर आया । पर धरती नहीं फटी ।।

Sunday, March 4, 2012

वो थी कूड़े के ढेर पर

चीखती,लहरती दोपहर में 
बरसा कर अपने कहर को 
हो उन्मुक्त जब सूरज छा रहा था
वो थी कूड़े के ढेर पर ।।

कर पैदा बना लावारिस 
फेंक कर उस ढेर पर 
जब लौट चूका था उसका जन्मदाता 
रो रही थी वो उस कूड़े के ढेर पर ।।

मनमोहती,खिलखिलाती 
गोधुली के उस पहर में,
लौटती कारों के बीच
थी बिलखती वह कूड़े के ढेर पर ।।

सभ्यता की दे दुहाई 
हैं समाज बन दुश्मन बैठा 
जिसकी न थी कोई गलती 
वो क्यूँ पड़ी थी कूड़े के ढेर पर ।।

रात्रि के अंतिम प्रहर में 
मार समाज के मुहं पर चांटा 
बन के आए मुक्तिदाता
 नोच खाया उस नन्ही जाँ को

चीख से दहली थी दिल्ली 
फिर क्यों नहीं थी कोई रूह कांपी ?

बन के एक श्वान  ग्रास
हुआ निवारण उसका त्रास

खाली था अब कूड़े का वो ढेर ।
पर थी कभी पड़ी वो उस कूड़े के ढेर पर 



Friday, March 2, 2012

दवा की जात

रामलोचन शर्मा ब्राम्हणों के अलावा किसी का छुआ हुआ पानी भी नही पीते थे ।
अगली सुबह उन्हें 102' बुखार था ।
  "डॉक्टर ,तुम वैसे हो किस खानदान से "
   "शर्मा जी...लोग उसे अछूत खानदान कहते हैं , मेरे पिता लाशों को आग दिया करते थे "
   "डॉक्टर ...जल्दी से दवा दो , प्राण हैं की छुटने को निकल रहे हैं "
और शर्मा जी ने डॉक्टर के हाथ से दवा पीकर चैन पाया ।