The power of thought

The power of thought

Thursday, September 30, 2010

मेरे प्रश्नों का जवाब

भारत, 1 ऐसा देश जो हमेशा से ही विविधिता में एकता का प्रतीक रहा है  और जिसका हर भारतीय को गर्व भी है | परन्तु इस गर्व की सीमा क्या होनी चहिये ? आज वो वक़्त सामने है जिसपर हम सभी को विचार अवश्य करना चहिये | कल इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा राम जन्म-भूमि का फैसला आएगा,जिस के बाद क्या होगा ये कोई नही जानता, में भी नहीं ..पर मैं 1 बात अवश्य जानता हूँ  की इस फैसले के बाद , चाहे वह फैसला किसी के भी पक्ष मे आये लोगो मे 3 तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलेंगी 

  1. जय श्री राम (सकारात्मक)  
  2. अल्लाह हो अकबर (नकारात्मक)
  3. हमें क्या फर्क पड़ता है , कुछ भी बने हमें क्या(विध्वंसात्मक)
इसी विचार ने हमारे राष्ट्र का लगभग सर्वनाश ही कर दिया |आश्चर्य की बात नही इसी उदासीनता ने हमारे देश को इतना पीछे धकेल दिया , हम जगद्गुरु से 1 विकासशील देश की श्रेणी मे आ गए | खिलजी के पास मात्र 12 सहयोगी थे , जबकि विश्वविद्यालय मे कुल 10000 सिर्फ छात्र थे , जिनकी मौजूदगी मे विश्वविद्यालय को खंडहर बना दिया गया और सभी देखते रह गये | कहते है विश्वविद्यालय का पुस्तकालय आग लगाने के बाद 6 माह तक धू-धू कर जलता रहा , जिसके साथ जल गयी हमारी संस्कृति , होम हो गया हमारा गौरवशाली इतिहास |
                 लेकिन जो 1 प्रश्न  सोचने पर मजबूर करता है "जब वह पुस्तकालय 6 माह तक जलता रहा तो किसी भी शासक ने उसे बचाने की उसकी आग बुझाने   की कोशिश नही की ? क्यों?
              अगर मानचित्र देखे तो पायेंगे इंग्लैंड का क्षेत्रफल हमारे ही 1 राज्य राजस्थान से भी बड़ा नही, वहाँ से मात्र 1 लाख अंग्रेज आये और हम ३३ करोड़ हिन्दुस्तानियों को ग़ुलाम बना कर मसल दिया | जालियावाला  बाग जैसे भीषण व क्रूरतम नरसंहार किये और हम किसी नेता व चमत्कार की प्रतीक्षा करते रहे |
             13 -अप्रैल-1919 को अंग्रेजो ने तो सिर्फ आदेश दिया था  (जालियावाला  बाग) पर गोलियां चलने वाले हाथ तो हिंदुस्थानी ही थे, यह वाकई मे आश्चर्यजनक  है की क्यों अपने ही भाईयों के सीने को छलनी करते हुए उनके हाथ क्यों नही कांपे ? 
    अब ये निष्क्रियता की पराकाष्ठा  हो ही गयी है , ये हम सभी जानते ही फिर भी चुप बैठे है , क्यों? ये हम सभी जानते है की विश्व की बड़ी-बड़ी सभ्यताएं अपने नागरिको की निष्क्रियता से ही नष्ट हो गयी , फिर भी हम चुप बैठे है आखिर क्यों ? क्यों?
क्या हम चाहते है की हमारी सभ्यता भी नष्ट होकर सिर्फ इतिहास के पन्नो मे ही देखने को मिले ? यदि हां , तो हम खुद को इंसान कैसे  कह सकते हैं ? और यदि नही , तो हम अभी तक चुप क्यों बैठे है? क्यों? 
  अगर अब भी हम नही चेते तो .....................
क्या मेरे प्रश्नों का कोई जवाब है ?

Wednesday, September 22, 2010

आखिर कब तक

हिन्दुस्थान, मेरा देश | यहाँ मैं पैदा हुआ, दुनिया देखी, दोस्त बनाये , सपने संजोये और उन सपनो को पूरा करने का दम भरते हुए कोशिश भी की | इस दुनिया के हर माँ-बाप के तरह मेरे माता-पिता भी यही चाहते है की उनका बेटा काफी सफल इंसान बने , उसका  काफी नाम  हो, क्या गलत चाह लिया उन लोगो ने , कुछ भी नही फिर भी कही न कही कुछ तो कमी रह ही गयी : मेरे अंदर जो की मैं उन  सपनो को पूरा करने के बजाय रोज के रोज एक नया सपना संजोने लगा | मैं भूल गया था की मैं उस देश का बेटा हूँ ...जहाँ  गरीबो के बच्चों को सपने देखने का कोई हक नही , जहाँ पिज्जा  के दाम तो कम होते जा रहे है मगर दवाईयों के बड़ते जा रहे है , जहाँ  सांसद तो अच्छा खासा वेतन ले सकते है मगर एक पुलिस हवलदार नही , जहाँ  सबको अपने वोट-बैंक की तो परवाह है मगर अपने वोटर्स की नही , जहाँ  लोग देश से बाहर जा रहे विद्वानों पर टिका-टिप्पणियां तो आराम से कर सकते है मगर उन्हें अपने ही देश मे वैसी सुविधाए नही दे सकते जिस से की उन्हें देश छोड़ कर जाने की जरूरत  ही न महसूस हो |
                     यही व्यथा हर 1 उस बच्चे के मन मे होती है जो कुछ करना तो चाहता है मगर सिस्टम के हाथो मजबूर हो जाता है , सपने हर कोई देखता है और उनको पूरा करने की कोशिश  भी करता है मगर आधे से ज्यादा ख्वाब तो इस भ्रष्ट सिस्टम के हाथो मे ही दम तोड़ देते है | क्या इस देश के ही संतान होने के नाते ये हमारा ही दायित्व नही की हम अपने उन देशवासियों के ख्वाबो की पूरा करने मे मदद करे आखिर कब तक कोई एकलव्य अपना अंगूठा कटवाता रहेगा ? और कब तक पूरा समाज धृतराष्ट्र बना बैठा रहेगा ?....आखिर कब तक ............????