The power of thought

The power of thought

Friday, September 28, 2012

"यह "तालियाँ बजाएगा

इस कदर है क्यूँ सोचता तू?
खुद को उनसे है क्यों तौलता तू ?

उनकी थाली होगी ही लाखों में 
है चिंता तेरी ही बस उनकी ही बातों में 
व्यर्थ ही तू है चिंता में गला जा रहा
उनका विमान तेरे ही लिए तो ,
है सात समंदर पार जा रहा ।

तेरी उन्नति को ही सभाएं होंगी 
जिसमें उनके इर्द-गिर्द परिचारिकाएं होंगी 
तू सोचता है इसमें उनका फायदा है 
"हे मुर्ख! वो तो तेरे सेवक हैं जो तेरे 
सिर्फ तेरे ही तरफ से उन सेवाओं का लुत्फ़ लेते है "

पर हे जालिम,निर्दयी,खुदगर्ज 
तुझे क्यूँ नही हैं उनकी खुशियाँ गंवारा ??
यकीं कर उनकी सुविधाओं का कोई अंश तेरी भी झोली में आएगा 
करदाताओं का कर यूँ ही न थोड़े जायेगा ।

तब तक तू इंतज़ार कर 
अपनी फटी धोती का ही उपयोग कर 
याद रख वो सेवक तू स्वामी है 
भूख,पीड़ा,दरिद्रता का तू ही तो वारिश है 

पर यदि यह तुझे स्वीकार न हो 
कर परिश्रम,उठ बन महान 
शामिल हो ले उन सेवकों संग 

पर याद रख 
"जो तुने भी मुहं मोड़ा तो वो पल भी आएगा 
जब काल की कालिमा से तू खुद  तेरी 
गर्दन नपवायेगा "
और "यह " खड़ा हो 
जोर जोर से नारे लगाएगा और तालियाँ बजाएगा ।।

Thursday, September 20, 2012

"यहाँ पेशाब करना मना है "

भारत के किसी भी शहर में जायें, गाँव या महानगर । किसी भी व्यक्ति से बात कर कुछ समझाने का प्रयास करें वह आपको ऐसी हिराकत भरी नजरों से देखेगा की आपको अपने वजूद पर ही शर्म आ जाये| और यह पूरा ही देश ऐसे विद्वानों से भरा पड़ा है, पर अहम सवाल यहीं खड़ा होता है , जब सब ही इतने समझदार हैं तो फिर क्यूँ समूचा शहर इसे ही महानुभावों से विनती करते तस्वीरों से अटा हुआ है ?
कहने को तो हम संभ्य है परन्तु अगर विचार करें जो जो सबसे ज्यादा विनती करता हुआ निवेदन है (जिसे कहीं कहीं देख कर ऐसा लगता है की अब उदारवादी धड़े से गरमपंथी अलग हो चुके है )
-"यहाँ पेशाब करना मना है " मैं आपसे शर्त लगा कर कह सकता हूँ की आप समूचे उत्तर भारत का भ्रमण कर आओ और एक भी ऐसा शहर खोज निकालो जहाँ यह विनती चस्पाई न गयी हो । "यहाँ थूकना मना है" यह साथ ही साथ प्रतिस्पर्धा करता हुआ पाया जाता है गोया मानों इंसानों में यह होड़ लगी हो हम थूक कर अपने मुखारविंद से इस शहर को खूबसूरत बना सकता हूँ या,,,,,,,,,समझ तो आप गए ही होंगे ।
"अपनी जान की चिंता कर हेलमेट पहन कर चल " "सीट-बेल्ट बांध कर यात्रा करें " यह भी कुछ महसूर होते जुमलों में शुमार होते जा रहे है । परन्तु मजाल है की हमारे कानो में जूं तक रेंग जाये। अब अगर ऐसे निवेदनो से ही मैं बातें मानना शुरू कर दूँ तो फिर हमारे शहर को ऐसे अनूठे जुमलें कहाँ से पढने को मिलेंगे । कुछ ऐसा ही विचार शायद हमारे बुद्धि वाले मित्रों का हो गया है शायद ।
 लेकिन इसमें हमारे जैसे नासमझों का ही सबसे ज्यादा नुकसान होता है ....कभी अगर किसी शोर्ट-कट के चक्कर में कोई गली पकड़ ली तो हो जाती है हमारी छुट्टी। मुझें याद है बचपन में मेरे दोस्त महावीर का चुनाव कुछ इसी तरह से करते थे "कौन सबसे ज्यादा देर तक इस गली में रह सकता है ""कौन उस कोने में खड़ा हो सकता है "
मेरे पुराने शहर में एक गली थी जिसका असली नाम तो शायद मुझे याद भी नहीं पर इतना याद है हम उसे "पेशाब वाली गली " कहा करते थे,क्यूँ ? क्युकी वो उसका खुला ऐलान था मेरे 100 मीटर के दायरे में से भी शांति पूर्वक गुजर कर तो दिखाओ ।
वो दिन बीते ,मैं पटना ,दिल्ली ,मुंबई घूम आया पर  ये जुमला मेरा पीछा करता ही रहा । अब मैं सोच रहा हूँ क्या कभी भी ऐसा कोई शहर विकसित होगा यहाँ जहाँ यह विनती न पढने को मिले "यहाँ पेशाब करना मना है"

Monday, September 17, 2012

भारत : धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र

भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है । आज़ादी की तुरंत बाद ही कुछ सुनहरे पाश्चात्य सिद्धांतों को अंगीकार करते हुए हमने धर्मनिरपेक्षता को भी स्वीकारा ।और क्या ही इससे अच्छी बात और कुछ हो सकती है की यहाँ कोई भी किसी को कोई धर्म स्वीकार या पालन करने पर मजबूर नहीं कर सकता ।
स्वाधीनता प्राप्त हुए 6 दशक हो गये पर हम अपने शासकों को "राज-धर्म" का पालन करने पर मजबूर नहीं कर सकते,शिक्षक अपने विद्यार्थियों से विद्यार्थी-धर्म और विद्यार्थी उनसे शिक्षक-धर्म की आशा तक नहीं कर सकते । यही तो वजह है की माता-पिता अब अपने पुत्र से पुत्र-धर्म की उम्मीद नहीं कर सकते ।
और यह सूची न जाने कितनी लम्बी हो जाये ...!!!
धर्म हाथी है और उसे परिभाषित करने वाले अंधे जो उसे अपने अपने स्पर्श के आधार से परिभाषित कर गए और कर रहे है । धर्म तो एक सभ्यता है,एक पद्धति है,जीवन जीने की कला जो मनुष्य को पर हित को सर्वोपरि रखते हुए कार्य करने पर उन्मुक्त रखता है । धर्मं है क्या ? विष्णु की पूजा या शिव की ? या  काली को प्रसन्न करने का प्रयत्न ...या गिरिजो व् मस्जिदों में आश्रय ? ये मजहबी है ...धार्मिक नहीं । धर्मं को तो हमने  ही मंदिर में बंद कर दिया और आज यहाँ ये विश्वास रखे हुए है की बिना धर्म के यहाँ लोग अपना धर्म(कर्तव्य ) निभायें ।
 यह एक छलावा से बढ़कर और क्या हो सकता है ?
हम उस मकड़ी की तरह छटपटा रहे है जो एक अति विशाल व् आकर्षक जाल बना रही हो और खुद ही उसमे जा फंसी हो फिर भी उसे काटने के विचार से ही डर रही हो ।
तो आयें तब तक हम डरते हैं और जीतें है या डरते-डरते जीते हैं अपने कर्तव्यों को भूल ।