भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है । आज़ादी की तुरंत बाद ही कुछ सुनहरे पाश्चात्य सिद्धांतों को अंगीकार करते हुए हमने धर्मनिरपेक्षता को भी स्वीकारा ।और क्या ही इससे अच्छी बात और कुछ हो सकती है की यहाँ कोई भी किसी को कोई धर्म स्वीकार या पालन करने पर मजबूर नहीं कर सकता ।
स्वाधीनता प्राप्त हुए 6 दशक हो गये पर हम अपने शासकों को "राज-धर्म" का पालन करने पर मजबूर नहीं कर सकते,शिक्षक अपने विद्यार्थियों से विद्यार्थी-धर्म और विद्यार्थी उनसे शिक्षक-धर्म की आशा तक नहीं कर सकते । यही तो वजह है की माता-पिता अब अपने पुत्र से पुत्र-धर्म की उम्मीद नहीं कर सकते ।
और यह सूची न जाने कितनी लम्बी हो जाये ...!!!
धर्म हाथी है और उसे परिभाषित करने वाले अंधे जो उसे अपने अपने स्पर्श के आधार से परिभाषित कर गए और कर रहे है । धर्म तो एक सभ्यता है,एक पद्धति है,जीवन जीने की कला जो मनुष्य को पर हित को सर्वोपरि रखते हुए कार्य करने पर उन्मुक्त रखता है । धर्मं है क्या ? विष्णु की पूजा या शिव की ? या काली को प्रसन्न करने का प्रयत्न ...या गिरिजो व् मस्जिदों में आश्रय ? ये मजहबी है ...धार्मिक नहीं । धर्मं को तो हमने ही मंदिर में बंद कर दिया और आज यहाँ ये विश्वास रखे हुए है की बिना धर्म के यहाँ लोग अपना धर्म(कर्तव्य ) निभायें ।
यह एक छलावा से बढ़कर और क्या हो सकता है ?
हम उस मकड़ी की तरह छटपटा रहे है जो एक अति विशाल व् आकर्षक जाल बना रही हो और खुद ही उसमे जा फंसी हो फिर भी उसे काटने के विचार से ही डर रही हो ।
तो आयें तब तक हम डरते हैं और जीतें है या डरते-डरते जीते हैं अपने कर्तव्यों को भूल ।
स्वाधीनता प्राप्त हुए 6 दशक हो गये पर हम अपने शासकों को "राज-धर्म" का पालन करने पर मजबूर नहीं कर सकते,शिक्षक अपने विद्यार्थियों से विद्यार्थी-धर्म और विद्यार्थी उनसे शिक्षक-धर्म की आशा तक नहीं कर सकते । यही तो वजह है की माता-पिता अब अपने पुत्र से पुत्र-धर्म की उम्मीद नहीं कर सकते ।
और यह सूची न जाने कितनी लम्बी हो जाये ...!!!
धर्म हाथी है और उसे परिभाषित करने वाले अंधे जो उसे अपने अपने स्पर्श के आधार से परिभाषित कर गए और कर रहे है । धर्म तो एक सभ्यता है,एक पद्धति है,जीवन जीने की कला जो मनुष्य को पर हित को सर्वोपरि रखते हुए कार्य करने पर उन्मुक्त रखता है । धर्मं है क्या ? विष्णु की पूजा या शिव की ? या काली को प्रसन्न करने का प्रयत्न ...या गिरिजो व् मस्जिदों में आश्रय ? ये मजहबी है ...धार्मिक नहीं । धर्मं को तो हमने ही मंदिर में बंद कर दिया और आज यहाँ ये विश्वास रखे हुए है की बिना धर्म के यहाँ लोग अपना धर्म(कर्तव्य ) निभायें ।
यह एक छलावा से बढ़कर और क्या हो सकता है ?
हम उस मकड़ी की तरह छटपटा रहे है जो एक अति विशाल व् आकर्षक जाल बना रही हो और खुद ही उसमे जा फंसी हो फिर भी उसे काटने के विचार से ही डर रही हो ।
तो आयें तब तक हम डरते हैं और जीतें है या डरते-डरते जीते हैं अपने कर्तव्यों को भूल ।
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