उस जंगल में आया वो नया जानवर था ,जो खुद के ईमान कि दुहाई देता हुआ व जंगल को बदलने का दावा करता आया था । बाकि जानवरों ने उस पर ध्यान नही दिया और वह भूखा ही नारे लगाते हुआ भटकने लगा । दस दिनों बाद शेर उसके सामने से गुजरा उसकी भूखी आँखों को देख शेर को अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने का एक उपाय समझ आया औरवह उसकी ओर अपना जूठा फेंक चलता बना । पंद्रह घंटों के इन्तेजार का बाद उसने यहाँ देखा , फिर वहाँ और जूठी रोटी खाने में लग गया ।
it's a blog all about things ..we just cross in our life , realize that these are worth but keep placing a blind eye on them.. it is "Power of Thought"
The power of thought
Tuesday, December 24, 2013
Thursday, September 19, 2013
कौन
हर दिन, हर पल हर सांस
अब बस आता एक सवाल है
कि मैं तेरा व तू मेरी कौन है ?
तू मेरी कौन यह जानता हूँ ,
इस संसार को हूँ सकता बतला कि
तू मेरी जान ,मेरा विश्वास मेरा अभिमान है ।
मैं रण में मूर्छित लक्ष्मण ,तू
मेरे प्राण वो संजीवनी है ।
मैं रेत पर तड़पती मछली , व
मेरी तू ज़िन्दगी वो पानी है ।
अब भटकता मैं शरीर , मेरी तू रूह है ।
जिसे हूँ मैं चाहता, तू ही मेरी वह महबूब है ।
मैं हूँ सा एक सुहागन ,मेरा तू श्रृंगार है ।
फिर भी है मेरा दिल पूछता मुझसे,
"बता वो तेरी कौन है ?"
तब कहता हूँ उससे कि ,जैसे
ग्रहों को सूर्य,वर्षा को मेघ व् जीवन को जल
अनिवार्य है , ठीक वैसे ही
"मेरे इस जीवन का अब तू आधार है । "
पूछता फिर वो नादान है कि तो
"मैं तेरा कौन हूँ " जो बता पाना आसान है
उसे हूँ समझाता कि
"वो चाँद मैं उसका चकोर, वह आग मैं पतंगा हूँ ।
है वो शमा मैं परवाना , वह धूल और मैं बूंद हूँ ।
वह तितली मैं फूल , वह कमल मैं गुंजायमान हूँ ।
मैं जीवन वह सांस , वह ऋचा और मैं उसका पाठ हूँ । "
अब वो है जानता की तू मेरी कौन है
लेकिन बात ये अब भी रही अधूरी है ,क्युकी
मेरी ज़िन्दगी में बाकी अब भी
लिखी जानी , तेरी कहानी है ॥
Saturday, September 14, 2013
अबूझा
"हद है भाई , इतनी भीड़ में ये लोग जो देख भी नहीं सकते , कैसे घुसे चले आते है सफ़र करने को ? और तिस पर इनके परिवार वाले इन्हें दिल्ली जैसी जगह में अकेले कैसे भेज सकते हैं ? किसी ने ठेका थोड़े ही ले रखा है , इन अन्धो का । " दिल्ली की बस में सफ़र करता हुआ वह १ अंधे की असहजता पर भड़का हुआ था, और उसे यह भी नहीं पता की वो आखिर भड़का क्यों ?
जवाब उसे थोड़ी देर में सारे सवालों का खुद ही मिल गया , जब बस स्टैंड से उस अंधे को उसके घर तक वह हाथ पकड़ छोड़ आया ॥
जवाब उसे थोड़ी देर में सारे सवालों का खुद ही मिल गया , जब बस स्टैंड से उस अंधे को उसके घर तक वह हाथ पकड़ छोड़ आया ॥
Sunday, September 8, 2013
पर्व : सम्बन्ध या स्वार्थ
"सजना है मुझे सजना के लिए " क्यों भाई , सजनी के लिए सजना क्यूँ नहीं सज सकते ? मुझे भी नहीं पता । खैर सवाल यह नहीं , सवाल मान्यताओं का है । तीज जो आज एक दिव्य पर्व रूप में मनाया जा रहा है , सिर्फ महिलाओं के लिए ही क्यों ? क्यों सिर्फ महिलाओं को ही उनके पतियों की लम्बी उम्र की कामना हो । आखिर ये पति लोग अपनी पत्नी की लम्बी उम्र क्यों नहीं चाहते ? बड़ा ही हास्यास्पद सवाल , पर जवाब क्या होगा ?
पुरानी मान्यता है जी, … वगैरा -वगैरा । तो जी पुरानी है तो हम अभी तक क्यों ढो रहे है ?
चीज़ें अच्छी कितनी भी रही हो , पुरानी तो कूड़े में ही जाती है न , वर्ना सड़ांध आनी तय है । हद है , अपने प्राण से प्यारों को भी उनके प्राण निकलने के बाद हम जला आते है , तो इन विचारों को क्यों पाले रख समाज को सड़ा सूंघा रहे है ।
मेरे पिछले विचार पर बड़ी गालियाँ पड़ी, पर मजा तो इस बात का आया की महिलाओं की तरफ से । पुरुषों को तो फर्क भी नहीं पड़ता ।
और एक सवाल यह भी की आखिर जब मेरे बीमार होने पर दवाई मुझे ही खानी पड़ेगी तो यहाँ पत्नी के खुद को कष्ट पहुँचाने से पति की आत्मा को थोड़ी जमानत कैसे मिल जाती है । हो सकता है अपनी सबला पत्नी को शांत देख सुकून से । पर गंभीरता तो कहती है की यह मंथन का विषय है । क्या यह आज भी औरतों को दोयम दर्जे का ही मानने का संकेत नहीं ? और आश्चर्य तो इस बात का की आज की आधुनिक नारी भी इस अवैज्ञानिक …… क्या ? अवैज्ञानिक नहीं ? तो ठीक है फिर तो पुरुषों को भी करना चाहिए , आखिर कोई महिला उस पुरुष के लिए क्यों भूखी रहे जो उसकी लम्बी उम्र नहीं चाहता । " तुम मेरे लिए भूखे रहो मैं तुम्हारे लिए । ""तुम मेरी उम्र लम्बी करो , मैं तुम्हारी " और अगर कोई पति इस पर तैयार नहीं होता तो जाये चूल्हे में ऐसा पति , उसके लिए क्यों खुद को कष्ट देना , उसके लिए अपना घर छोड़ आयी जो तुम्हे जिंदा ही नहीं देखना चाहता ।
पर जब तक महिलाएं खुद ही खुद को इन बेड़ियों में जकड़े रखेंगी तो वो सशक्तिकरण की बात भी कैसे कर सकती है ? इनको नकारना संवेदनाओं या संबंधों को नकारना नहीं , जो हमारी संस्कृति की पहचान है , बल्कि साधारण मानवता है । और शर्म तो उस पुरुष वर्ग को आनी चाहिए जो खुद को जीवित रखने हेतु अपनी पत्नी को मार रहा है । और अगर इस व्रत के न होने से उम्र थोड़ी कम भी हो गयी तो किस बात का गम , इसकी ख़ुशी तो रहेगी " ताउम्र खुशियों का जिससे वादा किया था , उसे खुद के स्वार्थ को कभी भूखा नहीं रहा ।"
Sunday, September 1, 2013
आसमां भी झुकता है
"सरकार की नीतियाँ हमेशा सही होती है , और हम उसकी आलोचना करने की क्षमता में नहीं" ऐसा हमेशा ही मुझे समझाया गया था | और किसी एक अकेले इंसान के लिए सरकार को उसकी गलती का एहसास करवाना , नामुमकिन है , मुझे यह भी समझाया गया था | पर इन दो दिनों में जो कुछ भी हुआ उसने मुझे अपनी यह कहानी आप सबको बताने को मजबूर कर दिया |
डेल्ही पब्लिक लाइब्रेरी (Delhi Public Library) के साथ उनकी नीतियों के खिलाफ 2011 में मैंने जो अभियान प्रारंभ किया था वो अंततः सफल हुई । और संस्था ने अपने दरवाज़े सभी के लिए खोल दिये ,उन मानदंडो को सुझाते हुए जो मैंने उन्हें तब सुझाये थे । इस क्रम में न जाने कितना समय व्यतीत हुआ , और लगभग अकेले ही सफ़र तय करना पड़ा । जिन तथाकथित बुद्धिजीवों से सहयता मांगी कुछ ने मुझे ही गलत कहा तो कुछ ने मदद के बदले मेहनताने की मांग रख दी । संघर्ष लम्बा है सो पूरा नहीं लिख रहा , पर जैसा मेरे मित्रों ने कहा इस बात का पता सबको चले सो विचारों के इस सागर में अपनी यह बोतल तैरा रहा हूँ , जिसे भी मिले वह समझे उसे क्या करना है ।
कुल जमा एक बात समझ में आई , 1951 से जो भेदभाव पूर्ण नीति चल रही थी वो 2013 में एक सामान्य आम आदमी के विरोध मात्र से परिवर्तित हो गयी , "एक राष्ट्रीय स्तर पर धमाका हुआ , बिना आवाज " । पर एक बात तो स्पष्ट हुई , यदि हम सही हो तो आसमां को भी झुकना ही पड़ता है ।
और इसका एक श्रेय मैं RTI को भी देना चाहूँगा ।
डेल्ही पब्लिक लाइब्रेरी (Delhi Public Library) के साथ उनकी नीतियों के खिलाफ 2011 में मैंने जो अभियान प्रारंभ किया था वो अंततः सफल हुई । और संस्था ने अपने दरवाज़े सभी के लिए खोल दिये ,उन मानदंडो को सुझाते हुए जो मैंने उन्हें तब सुझाये थे । इस क्रम में न जाने कितना समय व्यतीत हुआ , और लगभग अकेले ही सफ़र तय करना पड़ा । जिन तथाकथित बुद्धिजीवों से सहयता मांगी कुछ ने मुझे ही गलत कहा तो कुछ ने मदद के बदले मेहनताने की मांग रख दी । संघर्ष लम्बा है सो पूरा नहीं लिख रहा , पर जैसा मेरे मित्रों ने कहा इस बात का पता सबको चले सो विचारों के इस सागर में अपनी यह बोतल तैरा रहा हूँ , जिसे भी मिले वह समझे उसे क्या करना है ।
कुल जमा एक बात समझ में आई , 1951 से जो भेदभाव पूर्ण नीति चल रही थी वो 2013 में एक सामान्य आम आदमी के विरोध मात्र से परिवर्तित हो गयी , "एक राष्ट्रीय स्तर पर धमाका हुआ , बिना आवाज " । पर एक बात तो स्पष्ट हुई , यदि हम सही हो तो आसमां को भी झुकना ही पड़ता है ।
और इसका एक श्रेय मैं RTI को भी देना चाहूँगा ।
Sunday, August 25, 2013
धक्का
दिल्ली की सड़कों पर आज एक ठेले वाले को ठेला चलाते देखा , जिसमें नयापन कुछ भी नहीं । पर एक चढाई पर जा कर वो फंस गया और लाचार सा यहाँ वहां देखने लगा । पर उसके पीछे एक महिला बैठी थी सो लोग उसे सलाह दे रहे थे की " उतार इस औरत को , और कर ले पार " इस पर उस महिला ने पूछा "बेटा , उतर जाऊ ?"उसने कहा "न मैय्या , बैठी रह तू,।खिञ्च लूँगा । "
तो मैं , शर्मिंदा क्या करता?
गया , और जा कर धक्का दे आया ।
Friday, August 16, 2013
तेरा प्यार
तू है अनमोल,यह मानता हूँ ,
और जो है तेरे दिल में एक दर्द वह भी मैं जानता हूँ
नहीं तू चाहती मुझको,यह भी स्वीकारता हूँ ,
और न कभी चाहेगी मुझको, यह भी अब जानता हूँ
भुलाने को तुझको यह दिल खंगालता हूँ
लेकिन दिल ही नहीं रूह में भी,बस तुझको ही अब पाता हूँ
क्या करूं मैं ,जो सिर्फ तुझको ही चाहता हूँ ॥
था माँगा भी,तो क्या माँगा मैंने ?
संग तेरे दो पल ही तो बिताना चाहा मैंने,
खुद से भी ज्यादा है, तुझको अब चाहा मैंने
लिए तेरे ही अब न जाने,कितने अश्क बहाए मैंने ।
तू है नहीं मेरी ,खुद को यह भी समझाया मैंने ,
पर दिल ही दिल ,सिर्फ तुझको ही तो है चाहा मैंने ॥
नहीं वो उसका ,
यह जानते भी तो चकोर, चाहता बस चाँद है
और बजाये खोने, पतंगा उसी प्यार में हो जाता होम है ।
तो अब मैं भी हूँ यह चाहता की , जो तू न चाहे मुझको
तो इससे पहले की खो दूँ तुझको ,तेरे प्रेम में ही होऊं भस्म ॥
तोड़ तेरा दिल भी जो तुझको याद है
कर यकीं वह वाकई में होगा खास है ।
क्यूंकि होना तेरे दिल के पास अपने आप ही एक बात है ।
जो मिले खुदा आज तो बस चाहता यही हूँ मांगना
की जो वाकई ही मैं उसकी ही संतान हूँ
तो आज वो एक सबूत दे
मेरी ज़िन्दगी में , बस थोड़ा सा तेरा प्यार दे ॥
Saturday, August 10, 2013
खुद से ज्यादा
नहीं जानता मैं , की क्या है तू जानती
लेकिन चाहता तुझे ही , अब तो हर वक़्त हूँ ।
और ये कविता भी तो
बस तुझे समझाने का एक बहाना है ।
चाहता तेरे हूँ संग कहीं जाना
कभी हो खाना तो कभी घूमना
पर मकसद ये हरगिज़ नहीं, ये समझ ले
हूँ चाहता संग तेरे बस कुछ पल बिताना ॥
हूँ चाहता तेरी ज़िन्दगी के तेरे ही कुछ खास
पल चुरा लूँ ,और चुरा उन्हें अपना
बस अपना बना लूँ ॥
बस अपना बना लूँ ॥
हूँ चाहता तुझे मैं देखना
देखना तुझे जब तू हँसे ,उंगलियों से
अपनी लटों से खेले , देखू तुझे जब तू होंठ भींचे
जब तू अपने नयन समेटे
या जब कमलों सा उनको हौले से खोले ,
चाहता हूँ बनना ,मैं चोर उन पलों का
जिन पर सिर्फ तेरा ही अधिकार है ॥
जानता हूँ यह भी , की तू खास है
जोकि आशिक बना तेरा खुदा भी आज है
मेरा नही कोई वजूद है ,लेकिन
प्रेम ही जो सिर्फ बात हो
तो कर यकीं की
खुद से ज्यादा, चाहा है तुझको ॥
Friday, August 9, 2013
"वेदों की सूक्तियाँ "
सत या असत , झूठ या सांच
माने तू या माने न मेरी ये बात
पर सिर्फ तेरी ही सोचूं मैं अब दिन और रात ।
याद क्यूँ है तेरी हर वो बात,
शायद हुआ हूँ पागल या हो गया बावरा
री पर, बोल इसमें मेरा कसूर क्या ?
तू है इत्ते पास मेरे की
हूँ वाकई , मैं बस सोचता …
पाप था या पुण्य जो तुझो मिला
जो मिली तू तो वह पुण्य था
जो खोयी अब सी हो दुभाग ।
नहीं चाहता हूँ तुझे,किसी और से बाँटना
लगता माना खुदगर्ज हूँ ,पर तो
री ,इसमें मेरा कसूर क्या ?
मेरी शंका निर्मूल हो यह चाहता है प्रेम मेरा
तो हो मेरी सिर्फ, है मांगता अब दिल मेरा ।
देखा नही खुदा था , सिर्फ धुआं जलाता था
पर भेज तुझे उसने मंत्र भी गँवा दिए
अब तो है मेरी पनाह मांगती
हर वक़्त तू ही तू …बस तू है
"वेदों की सूक्तियों " सी गूंजती
Tuesday, August 6, 2013
निवेदन : प्रेम का
शायद जो है तुझे पाया आधा
वो खोने का पूरा डर सताता है
तभी
रात इस वक़्त भी
हूँ मैं कुछ खोजता सा ।
अब तो आधी नींद भी
है क्यूँ गायब तू ये बता ,
शायद तुझे खोने का है वो डर ।
है मन में तेरे क्या
ये तो नहीं मैं जानता
सो खुद खुदा ख्वाबों में तेरे
आ कर दे बयां , हूँ यह चाहता
करूं क्या वे कहूँ क्या
अब तक हूँ यह ही सोचता
क्यूंकि तुझे मैं खोना नही हूँ चाहता ॥
दोस्ती से आगे तेरे तैरने को हूँ बढ़ा
पर रे ,इस नौका की पतवार तू ही चला
चला पतवार अब ये नाव अटकती है
कुछ तो बोल दे के ये साँसे अटकती है
यह प्रसंग पहली हूँ लिख रहा
जो तू समझे मानो हो दिलबरा ॥
Tuesday, July 23, 2013
मैं कौन : नारी
अधूरी थी राहें ,
अधूरी थी मैं
खुद के लिए मांगती
थी अधिकार मैं
अधिकार,जो दे अधिकार
अधिकार,जो मुझसे पहले
उन सभ्य पुरुषों,धर्मगुरुओं को
होते स्वीकार !
अधिकार, जो मुझको मेरे देश वतन,घर में
मेरे ही पिता, द्वारा
मिलते मुझे उपहार में ,
उपहार,क्यूंकि इन पर मेरी प्रतिकिया न थी
उपहार,क्यूंकि यह मेरी नहीं
तुम्हारी मर्जी पर थी !
उपहार,क्यूंकि मैं थी तो चाहती
गो पर मुझे मिले नहीं !
आश्वासन देकर तुमने घात-विश्वास किया
मेरा,मेरे ही घर में बलात्कार किया ,
सिर्फ तू नहीं कथित मेरे सगों ने भी
तब छल किया !
एक नहीं , न जाने कई बार किया !
आई जब गर्भ में,मैं तब मरी
हुई पैदा तब मरी
जो गयी पढने तब मरी
जो घर रही तब भी मरी ,
जो किया प्रेम तब मरी
जो न किया बिलकुल मरी !
मेरी ही मूर्ति सम्मुख नग्न हुई
अपने ही अक्स के आगे बेबस हुई !
परन्तु,सहती कब तक मैं ?
हाँ,मैं सह रही थी क्युकी दिल मेरा
विशाला है ,
जितना तू गिर न सका ,उतना मेरे अंदर
उजाला है !
पर,रे मुर्ख पापी ,ये भूल मत की
सर्वोच्च शक्ति भी मैं ही हूँ
आखिर
जब था हेतु वध महीष तब
था पड़ा मुझको ही आना
अधूरी थी मैं
खुद के लिए मांगती
थी अधिकार मैं
अधिकार,जो दे अधिकार
अधिकार,जो मुझसे पहले
उन सभ्य पुरुषों,धर्मगुरुओं को
होते स्वीकार !
अधिकार, जो मुझको मेरे देश वतन,घर में
मेरे ही पिता, द्वारा
मिलते मुझे उपहार में ,
उपहार,क्यूंकि इन पर मेरी प्रतिकिया न थी
उपहार,क्यूंकि यह मेरी नहीं
तुम्हारी मर्जी पर थी !
उपहार,क्यूंकि मैं थी तो चाहती
गो पर मुझे मिले नहीं !
आश्वासन देकर तुमने घात-विश्वास किया
मेरा,मेरे ही घर में बलात्कार किया ,
सिर्फ तू नहीं कथित मेरे सगों ने भी
तब छल किया !
एक नहीं , न जाने कई बार किया !
आई जब गर्भ में,मैं तब मरी
हुई पैदा तब मरी
जो गयी पढने तब मरी
जो घर रही तब भी मरी ,
जो किया प्रेम तब मरी
जो न किया बिलकुल मरी !
मेरी ही मूर्ति सम्मुख नग्न हुई
अपने ही अक्स के आगे बेबस हुई !
परन्तु,सहती कब तक मैं ?
हाँ,मैं सह रही थी क्युकी दिल मेरा
विशाला है ,
जितना तू गिर न सका ,उतना मेरे अंदर
उजाला है !
पर,रे मुर्ख पापी ,ये भूल मत की
सर्वोच्च शक्ति भी मैं ही हूँ
आखिर
जब था हेतु वध महीष तब
था पड़ा मुझको ही आना
Friday, July 19, 2013
कटाक्ष : एक अधूरी कविता
रे नारी ! तू मुर्ख है ,
है अल्पबुद्धि जो,मांगती अपने अधिकार है ।
आज हुआ कैसे तुझे खुद से ही प्यार है ?
तेरे,अंग प्रत्यंग की रचना हुई ही है
मेरे विलास को,फिर कैसे
दे दूँ तुझे मैं,तेरे ये कपोल कल्पित अधिकार ।
तू सोचती है,तुझे मांगने पर अधिकार मिलेगा ,
हा पगली ! जो तूने मना किया तो याद रख
अब भी तूझे,ज़िन्दगी झुलसाने का तेजाब मिलेगा ।
रे मुर्ख नारी !
लगी है तू सोचने,कैसे यह मैं भी हूँ सोचता ।
भूल मत,सती बना तुझे जलाया किसने ? मैंने
पहले जन्मजा थी मरती,अब तो बाहर की साँस
भी है दूभर,फिर भी है तू सोचती ।
तुझे जलाया,रुलाया,तडपाया,मारा
और वासना से मसला किसने ? मैंने
शक की बनाह हुई तो दीवारों पर भी पटका ,
मसालों सा मसला और फिर जितना तेरा
अधिकार, उतने ही छोटे टुकडो में काटने का पुरुषत्व दिखाया ।
फिर भी,तू क्यूँ न है चेतती ?
रे भोग्या ! चेत जा .....
तेरा सम्मान एक ढोंग है ,
तभी तो मेरा परिवार भी है
आज मुझसे सहमा,कल ही मैंने बारह वर्षीया
अपनी बहन को भी था भोगा ।
भारत माता है तभी तो है बे आबरू
जो मानते इसे पिता तो, बातें कुछ ............
है अल्पबुद्धि जो,मांगती अपने अधिकार है ।
आज हुआ कैसे तुझे खुद से ही प्यार है ?
तेरे,अंग प्रत्यंग की रचना हुई ही है
मेरे विलास को,फिर कैसे
दे दूँ तुझे मैं,तेरे ये कपोल कल्पित अधिकार ।
तू सोचती है,तुझे मांगने पर अधिकार मिलेगा ,
हा पगली ! जो तूने मना किया तो याद रख
अब भी तूझे,ज़िन्दगी झुलसाने का तेजाब मिलेगा ।
रे मुर्ख नारी !
लगी है तू सोचने,कैसे यह मैं भी हूँ सोचता ।
भूल मत,सती बना तुझे जलाया किसने ? मैंने
पहले जन्मजा थी मरती,अब तो बाहर की साँस
भी है दूभर,फिर भी है तू सोचती ।
तुझे जलाया,रुलाया,तडपाया,मारा
और वासना से मसला किसने ? मैंने
शक की बनाह हुई तो दीवारों पर भी पटका ,
मसालों सा मसला और फिर जितना तेरा
अधिकार, उतने ही छोटे टुकडो में काटने का पुरुषत्व दिखाया ।
फिर भी,तू क्यूँ न है चेतती ?
रे भोग्या ! चेत जा .....
तेरा सम्मान एक ढोंग है ,
तभी तो मेरा परिवार भी है
आज मुझसे सहमा,कल ही मैंने बारह वर्षीया
अपनी बहन को भी था भोगा ।
भारत माता है तभी तो है बे आबरू
जो मानते इसे पिता तो, बातें कुछ ............
Friday, June 21, 2013
पिता !!
उसे पैदा करते ही उसकी माँ चल बसी।उसने ही उसे पाल-पोष कर बड़ा किया था।उसकी शराब के नशे के बाद जो कुछ अगर कभी बच गया तो उससे उसका पेट भरता।यूँ ही आधा-पूरा खाते हुए उसने नवयौवन को प्राप्त किया।परन्तु उसका व्यव्हार तब भी वैसा ही था।
एक दिन जब वो बाहर से लौटा तो उसके पास शराब की जगह मिठाई थी।और यह रोज का सिलसिला बन गया।तीन सप्ताह बाद वो उसे घुमाने ले गया , और सड़क के किनारे जा बात करने लगा ,उसे लगा वह उनके घुमने की व्यवस्था कर रहा है। फिर वह एक आदमी और बहुत सारे रुपयो के साथ लौटा।उस आदमी ने उसका हाथ पकड़ लिया और फुसलाते हुए उसे जबरन अपनी गाड़ी की ओर ले जाने लगा।उसने घबरा कर उसकी ओर देखा ,पर वह नोट गिनने में व्यस्त था।
थोड़ी देर बाद वो सहमी,रोते से वापस आयी, उसकी आँखो से आंशु भी गायब थे। उसे आता देख वह खुश हो गया और कहा "चल नाटक मत कर, कल फिर आना है "
वह स्तब्ध सी हो सर झुकाए उसके पीछे चल पड़ी।क्यूँकी वो उसका पिता जो था !!
एक दिन जब वो बाहर से लौटा तो उसके पास शराब की जगह मिठाई थी।और यह रोज का सिलसिला बन गया।तीन सप्ताह बाद वो उसे घुमाने ले गया , और सड़क के किनारे जा बात करने लगा ,उसे लगा वह उनके घुमने की व्यवस्था कर रहा है। फिर वह एक आदमी और बहुत सारे रुपयो के साथ लौटा।उस आदमी ने उसका हाथ पकड़ लिया और फुसलाते हुए उसे जबरन अपनी गाड़ी की ओर ले जाने लगा।उसने घबरा कर उसकी ओर देखा ,पर वह नोट गिनने में व्यस्त था।
थोड़ी देर बाद वो सहमी,रोते से वापस आयी, उसकी आँखो से आंशु भी गायब थे। उसे आता देख वह खुश हो गया और कहा "चल नाटक मत कर, कल फिर आना है "
वह स्तब्ध सी हो सर झुकाए उसके पीछे चल पड़ी।क्यूँकी वो उसका पिता जो था !!
Tuesday, February 26, 2013
क्योंकि यह कलियुग है
कहानियाँ जन्म लेती हैं एवं लेती रहेंगी । हर कहानी चाहे वह कितनी ही कल्पना से परे क्यूँ न हो कहीं न कहीं, कोई न कोई वास्तविकता उसके पिता होने का दावा पेश कर सकती है ।
यह कहानियाँ एवं प्रसंग ही है जो अपने आप में एक पीढ़ी की विरासत समेट अगली पीढ़ी को प्रदान करते हैं । मुझे नहीं पता रामायण,महाभारत की घटनाएं वास्तविक हैं या नहीं । परन्तु इन्होने उन युगों की विरासतों को न जाने कितनी पीढ़ियों तक पहुँचाया है और न जाने कब तक पहुंचाते रहेगी ? जब तक जीवन है तब तक !!
दोनों महागाथाओं के केंद्र में दो ही विषय रहे , स्त्रियों का अपमान । शूर्पनखा,सीता,अम्बा एवं द्रौपदी का । मात्र इन चार स्त्रियों के अहम् , शील ,विचार,प्रेम एवं लाज पर आघात ने असंख्य प्राणों का हरण कर लिया । पर आज जब हर क्षण किसी नारी का अपमान व् शील भंग हो रहा है तो इसका प्रति-उत्तर क्या प्राप्त हो रहा है ? "आक्रोश" जो दूध के उस उफान से अधिक कुछ भी नहीं जो पानी की कुछ बूंदों से शांत हो जाता हो । "समितियां" जिनकी रिपोर्ट न जाने कहाँ गुम होने के लिए ही लिखी जाती है ।
परन्तु एक स्त्री की इज्ज़त का मूल्य क्या हो ? यह कौन निर्धारित करेगा ? बिना इजाजत कोई किसी का स्पर्श भी बर्दाश्त नहीं करता, पर जिसके साथ उसकी मर्ज़ी के खिलाफ बलात कार्य किया जाये उसकी मानसिक दुर्दशा की क्षतिपूर्ति क्या हो ? सीता के हरण के बाद रावण के पास एक मौका था, सीता को लौटा संधि का ,वह त्रेता था । द्रौपदी अपमान के बाद दुर्योधन के पास और भी अधिक सरल उपाय था । उसे बस पांडवों को उनका ही राज्य सौंपना था , वह द्वापर था ।
आज तो यह मुट्ठियों में है ।
दिल्ली की बलात्कार पीडिता का मुआवजा दिल्ली में एक मकान । यह एक कदम है ,सराहनीय या नहीं मैं निर्धारित नहीं कर सकता , परन्तु जब एक पीडिता के परिवार को यह क्षतिपूर्ति दिया जा रहा है तो न जाने इस राष्ट्र ,प्राचीन जगद्गुरु की माटी में ऐसी कितनी ही निर्भया आत्मा विहीन जीवन जी रहीं होंगी । उन का क्या कसूर ?
पटना में भी एक पीडिता को उसके बलात्कार का मुआवजा दिया गया ,500 रुपये । यह आज का विधान है , क्योंकि यह कलियुग है ।
यह कहानियाँ एवं प्रसंग ही है जो अपने आप में एक पीढ़ी की विरासत समेट अगली पीढ़ी को प्रदान करते हैं । मुझे नहीं पता रामायण,महाभारत की घटनाएं वास्तविक हैं या नहीं । परन्तु इन्होने उन युगों की विरासतों को न जाने कितनी पीढ़ियों तक पहुँचाया है और न जाने कब तक पहुंचाते रहेगी ? जब तक जीवन है तब तक !!
दोनों महागाथाओं के केंद्र में दो ही विषय रहे , स्त्रियों का अपमान । शूर्पनखा,सीता,अम्बा एवं द्रौपदी का । मात्र इन चार स्त्रियों के अहम् , शील ,विचार,प्रेम एवं लाज पर आघात ने असंख्य प्राणों का हरण कर लिया । पर आज जब हर क्षण किसी नारी का अपमान व् शील भंग हो रहा है तो इसका प्रति-उत्तर क्या प्राप्त हो रहा है ? "आक्रोश" जो दूध के उस उफान से अधिक कुछ भी नहीं जो पानी की कुछ बूंदों से शांत हो जाता हो । "समितियां" जिनकी रिपोर्ट न जाने कहाँ गुम होने के लिए ही लिखी जाती है ।
परन्तु एक स्त्री की इज्ज़त का मूल्य क्या हो ? यह कौन निर्धारित करेगा ? बिना इजाजत कोई किसी का स्पर्श भी बर्दाश्त नहीं करता, पर जिसके साथ उसकी मर्ज़ी के खिलाफ बलात कार्य किया जाये उसकी मानसिक दुर्दशा की क्षतिपूर्ति क्या हो ? सीता के हरण के बाद रावण के पास एक मौका था, सीता को लौटा संधि का ,वह त्रेता था । द्रौपदी अपमान के बाद दुर्योधन के पास और भी अधिक सरल उपाय था । उसे बस पांडवों को उनका ही राज्य सौंपना था , वह द्वापर था ।
आज तो यह मुट्ठियों में है ।
दिल्ली की बलात्कार पीडिता का मुआवजा दिल्ली में एक मकान । यह एक कदम है ,सराहनीय या नहीं मैं निर्धारित नहीं कर सकता , परन्तु जब एक पीडिता के परिवार को यह क्षतिपूर्ति दिया जा रहा है तो न जाने इस राष्ट्र ,प्राचीन जगद्गुरु की माटी में ऐसी कितनी ही निर्भया आत्मा विहीन जीवन जी रहीं होंगी । उन का क्या कसूर ?
पटना में भी एक पीडिता को उसके बलात्कार का मुआवजा दिया गया ,500 रुपये । यह आज का विधान है , क्योंकि यह कलियुग है ।
Tuesday, February 5, 2013
मैं , केवल मैं
सामने जो प्रतिरूप है
जो आईने में होता साकार है
क्या वह मैं हूँ ?
क्रोध,दर्प,अभिमान
मोह,लोभ,पीड़ा
पाने का सम्मान
गंवाने का अपमान
जिस सीने में है भरा,
क्या , वह है मेरा ही ?
इस शरीर में जो है
करता विश्वास होने का
इस नश्वर का स्वामी ,
क्या वह मैं ही हूँ ?
अवसर,मौके , बारी
का जो बेइंतहा से
कर रहा हो इंतजार
खुद की दुनिया में ही
मगन बाहर से है बेखबर
वह एहसास क्या मैं ही हूँ ?
या, हूँ मैं विश्वास !
ब्रम्हाण्ड की सूक्ष्मता से
कणों की विशालता में
मिल रहा जो तत्व है ,
क्या वह मेरा है ?
यह जो भी है , वह क्या है ?
है वह क्या मेरा , या हूँ मैं कुछ उसका ?
प्रश्न तो यह है की -
मैं क्या हूँ और क्यूँ हूँ ?
Saturday, January 19, 2013
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
कश्मीर के मेरे परिवार वालों के प्रति मेरी यह कविता जो मैं अपने कृष्ण को समर्पित कर रहा हूँ । जिन्हें आज के दिन ही अपनी धरती से विमुख होना पड़ा था।
होती नहीं अब नींद पूरी
मेरी इन झुरमुटों में
सिलवटें ही सिलवटें हैं
मेरी इन करवटों में ।
घर से खुद के,बिछोह का
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
निरपेक्ष मेरा धर्म था
अभिमान मेरा कर्म था,
जिस देश का मैं प्यार था
वो आज मुझसे दूर है ।
बंधुता की बातें मुझसे
इक मजाक जो विद्रूप है ।
घर से खुद के,बिछोह का
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
जगतगुरु जो राष्ट्र था
उसका मैं सिरमौर था ,
पर आज उसकी नीतियों में
केवल इक विचार हूँ ।।
सिलवटें ही सिलवटें हैं
मेरी इन करवटों में ।
घर से खुद के,बिछोह का
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
मैं विचल हूँ ,मैं अटल हूँ''
मैं कुपित हूँ,मैं सरल हूँ
दर्द हूँ , या श्राप हूँ
गोया सच तो यह है कुछ भी नही हूँ
बस अपने ही इस देश में
मैं आज एक शरणार्थी हूँ ।।
कलकाल का ये प्रारंभ है
विकरालता का आरम्भ है
मैं कल भी था मैं आज भी हूँ
पर एक बात का विश्वास हैं'
कल या मैं नहीं हूँ या मेरे पास तू भी है
जो खुद अपने ही इस देश में बनके बैठा
एक शरणार्थी है ।
घर से खुद के,बिछोह का
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
Friday, January 18, 2013
"Love garden : A Date": My entry for the Get Published contest
The Idea - Love is the strength but what will you do when your true love becomes your worst weakness. The Story is about two lovers deep in love. On a very romantic date the girl got raped & boy brutally beaten. Now Boys is in deep depression thinking it is all his fault because it was his idea of this horror date. It resulted in his continuous failing leading to his civil services exam interview. The girl is guilty to be the reason of boy's beating,in her soul. They both are lost. As they both were preparing for competitive examinations it has affected not their love(present) but also their future.What they are going to do? Do they still love each other? Would they be able to accept them in their life. What about their career.Will the ever can have their love garden that got destroyed due to that one date.
"What Makes This Story ‘Real"
Its a story about the incident that can happen any where to any one in this world. Its not a fairy romantic tale. And can lead to any ending.
Extracts
"Ain't you the same ,?" Interviewer asked him"Why you have put IPS as your first choice? Are you planning some avenge."
He broke down in tears.He is not able to stop.
The result came expected he scored only 75 in interview.No he was not selected.Another setback.
This is my entry for the HarperCollins–IndiBlogger Get Published contest, which is run with inputs from Yashodhara Lal andHarperCollins India.
Tuesday, January 8, 2013
आगे रोक है
सावधान! होशियार!
ख़बरदार!
जनसाधारण को सूचित किया
जाता है की
यहाँ आज से रोक है ।
मोबाइल पर रोक है
इन्टरनेट पर रोक है
लड़कियों की आजादी पर,
उनके जीन्स पहनने पर
बढ़िया मेकअप करने पर
रोक है! रोक है!
लोगो में आकर्षण पर
बुद्धि के प्रयोग पर
हिम्मत और सच्चाई पर
भी
लग चुकी रोक है।
इंडिया के गेट पर
मेट्रो के रेल पर
भूखों के पेट पर
और
लोगों के नेक पर
रोक है! रोक है!
केवल
हिंसा व् बटवारे ,
भड़काऊ , चटखारे
वादें एवं नारे
भाषण
अश्लील नजारें
अपराधों व दंगो से
हट चुकी यह
रोक है ।
लेकिन
चिड़ियों की आजादी पर
उनकी उस आवाज पर
क्या
लगी कभी कोई रोक है ?
Saturday, January 5, 2013
अबकी बेटी
ज्यों गिरते विचार हैं
बाहर उत्ते ही खतरे अपार हैं ।
तो
हे प्रभु ! अबकी मुझे बेटी न दीजो ।।
संसार में खतरे या खतरों में संसार है?
भेडियों को भेड़ों का जहाँ बारम्बार प्रणाम है
शेयर बाजार से ज्यादा
जहाँ
बलात्कार का कारोबार है ।
उस धरती पर,
हे प्रभु ! अबकी मुझे बेटी न दीजो ।।
जहाँ लोग खुद को
खुद ही
अंगीकृत विधान करते आत्मार्पित हो ,
एवं
न्याय,स्वतंत्रता,समता व् बंधुता की
हो रही जिसमे बात हो
उस पावन ग्रन्थ रचियता धरती पर
बिलकुल भी,
हे प्रभु ! अबकी मुझे बेटी न दीजो ।।
पर,मेरा खुद का भी तो संसार है
खुशियाँ पाना मेरा भी अधिकार है
और बेटी से पावन मुझको
मिल सकता क्या उपहार है ?
बल दे पाना ही तो मेरा पुरषार्थ है
ज्ञान,बल,कौशल जो प्रदान हो
तो
हे प्रभु ! अबकी एक बेटी दे ही दीना ।।
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