कश्मीर के मेरे परिवार वालों के प्रति मेरी यह कविता जो मैं अपने कृष्ण को समर्पित कर रहा हूँ । जिन्हें आज के दिन ही अपनी धरती से विमुख होना पड़ा था।
होती नहीं अब नींद पूरी
मेरी इन झुरमुटों में
सिलवटें ही सिलवटें हैं
मेरी इन करवटों में ।
घर से खुद के,बिछोह का
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
निरपेक्ष मेरा धर्म था
अभिमान मेरा कर्म था,
जिस देश का मैं प्यार था
वो आज मुझसे दूर है ।
बंधुता की बातें मुझसे
इक मजाक जो विद्रूप है ।
घर से खुद के,बिछोह का
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
जगतगुरु जो राष्ट्र था
उसका मैं सिरमौर था ,
पर आज उसकी नीतियों में
केवल इक विचार हूँ ।।
सिलवटें ही सिलवटें हैं
मेरी इन करवटों में ।
घर से खुद के,बिछोह का
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
मैं विचल हूँ ,मैं अटल हूँ''
मैं कुपित हूँ,मैं सरल हूँ
दर्द हूँ , या श्राप हूँ
गोया सच तो यह है कुछ भी नही हूँ
बस अपने ही इस देश में
मैं आज एक शरणार्थी हूँ ।।
कलकाल का ये प्रारंभ है
विकरालता का आरम्भ है
मैं कल भी था मैं आज भी हूँ
पर एक बात का विश्वास हैं'
कल या मैं नहीं हूँ या मेरे पास तू भी है
जो खुद अपने ही इस देश में बनके बैठा
एक शरणार्थी है ।
घर से खुद के,बिछोह का
दर्द क्या , मैं जानता हूँ ।।
No comments:
Post a Comment