उनसे करना दोस्ती ही
मेरी भारी एक भूल थी ।
दिन के उस दहाड़े , बत्ती रक्त के साये
वो रौंद नोच गए उसे
जो मेरे बगिया कि फूल थी ॥
वो बदहाल , बैचेन थी
रोता अंदर , समझाता उसको मैं उसका बाप था ।
महामहिम को लाना व समझना अपना
मेरा ही तो पाप था ॥
इस विपदा भूले जाने कितने मित्र याद आये
मिलना उनसे कितने , ही सस्ते व्यंग्य लाये ।
खा सबसे धक्के , मैं सरकार को गया
थे कदम जड़ , मैं रोता विलपता ही गया ।
साहेब ने उठाया , कंधे से लगाया
आंसू पोंछे , पिला पानी कन्धा दिलवाया ।
फिर मीठी मुस्कान , तीखी आँखों का वक़्त आया
जब उनकी तरफ से वो आदेश आया
"आप वहाँ जाये , पर अपनी बेटी भेजे जाये "
परले बाद वो जड़ सी आयी और, मैं फिर रो पड़ा
क्योंकि कीड़ा उस फूल का अंतिम श्वास भी था पी गया ॥
दिनों बाद साहेब को मैं फिर याद आया
उन्होंने फ़ौरन अपने कमरे में , बुलवाया ।
बुला अंदर उन्होंने अब खोलने को , मेरे कपडे
वो कष्ट किया और मेरे गिरबान वो सर्पिल हस्त रखा ।
"पर मैं भी अब सावधान था
जोकि इस बार मैं , पहले से ही निर्वस्त्र था "
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