यह जो है यह उफान है ठीक वैसा ही जैसा दूध में आता है । पर यह कब आता है तब जब दूध पूर्णतः गर्म हो चूका होता है, यहाँ से वापस जाने का कोई मार्ग नहीं पर सामने भी कोई एक सरल मार्ग नहीं । दूध में इस वक़्त पानी के कुछ छींटे मारे जाते है परिणामतः दूध अपना उफान शांत कर शांत हो जाता है ,पर कभी जब किसी का ध्यान न हो यह दूध उफनता बाहर आ जाता है और एक आखिरी परिस्थिति में वो आग जो इसे ऊष्मा दे रही होती है उसे ही बुझा दिया जाता है ।
आज दिल्ली में आग पर दूध ही है,जो हर तरह से उफान मार रहा है और स्पष्ट है की अब तीन मार्ग ही संभव है क्योंकि प्रतीत तो यही होता है की ऊष्मा तो ग्रहण हो ही गयी है । और यह ही संभव है यहाँ से की सरकार आरोपियों को जनता के अनुरूप सजा सुनाने को तैयार हो जाएगी और यह उफान शांत हो जायेगा ।
झारखण्ड में कल उफान मार रहे दूध ने 5 जीवाणुओं को समाप्त कर दिया । सन्देश स्पष्ट है की अब इस देश में यह स्वीकार्य नहीं,हर वह नौजवान जो उसी जाती से सम्बधित्त है जो की कसूरवार है आज इस उफान में खुद को पाक साफ कर रहा है । तो हम यह मान सकते है की वहाँ दूध बाहर आ गया ,काफी सारे सम्मानीय लोगो ने इसकी सराहना भी की परन्तु प्रश्न यह भी तो बनता है की क्या समाज को खुद ही इन्साफ करने का अधिकार मिल गया है ? आज यह लाखो लोगो की भावनाओं के समर्थन से साकार है अतः कोई भी इसके औचित्य पर सवाल तक नहीं करेगा परन्तु कल क्या होगा? आज यह गलत के खिलाफ है तो यह असंभव कदापि नहीं की कल गलत के विरोध में उठ रहे स्वरों के भी दबा न दिया जाये । भीड़ का इन्साफ सदैव ही सही होता तो मानव आज सभ्य होने का स्वांग न भर रहा होता ।
पर एक परिस्थिति और भी है यहाँ, यह दूध जो दिल्ली में उफान मार रहा है इस वक़्त का संपर्क आग से काट दिया जाये तो उस समय क्या होगा ? पर मुझे खुद ही संदेह है की यह कोई कारगर उपाय होगा । परन्तु मूल प्रश्न तो कुछ और ही है। इस के बाद जब पुनः हवसी बाहर निकलेंगे अपनी मांद से उस वक़्त क्या होगा ? क्या उस वक़्त तक यह उफान कायम रहेगा ? जब पीडिता के रक्त की बुँदे दिल्ली के बजाय अरुणाचल , असम, छत्तीसगढ़ या उड़ीसा के जंगलों को लाल करेंगी उस वक़्त क्या यह ऊष्मा उफान दे पायेगी ?
धनंजय चटर्जी के बाद जो शांत न हो सका क्या वो आज हो पायेगा ? और क्या इन्साफ कर रही यह भीड़ पुनः आम हो पायेगी ?
खैर वैसे असली दूध और इंसानों में कुछ तो फर्क रहेगा ही ,क्यों?