भारत ,आर्यावर्त,हिन्दुस्थान जितने इस राष्ट्र के नाम हैं उससे कहीं पुरानी और गहरी संस्कृति और इतिहास की थाती भी है । एक राष्ट्र जो कभी जगद्गुरु था जिसका डंका हम आज भी पीटते हैं । यूँ तो हम विश्व की छठी परमाणु शक्ति है और दक्षिण-एशिया की सबसे बड़ी शक्ति भी,अर्थव्यवस्था के मामले में हम चुनिन्दा ट्रीलियन डॉलर देशो के साथ शामिल है संयुक्त राष्ट्र में हमारी दावेदारी भी प्रमुख है परन्तु हमारी रीड़ की हड्डी गायब है । किसी देश के होने का मतबल बस उसके विश्व के मानचित्र पर कहीं पाए जाने या उसकी भू-आकृतियों की विशालता ही नही वो निर्भर करती है उसकी सभ्यता,उसकी संस्कृति पर।
"कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी " किसी ने कहा था । 1092 ई. पृथ्वीराज चौहान की हार के साथ ही यह देश विदेशियों के हाथों में चला गया मुक्ति मिली 1947 में। 855 वर्ष की ग़ुलामी जिसमे यवनों ,मुगलों,यूरोपियों ने हमे बेरहमी से लुटा हमारी संस्कृति को मिटाने की कोशिश की पर सफल न हो सके । गर्व से अपना उन्नत मस्तक उठाये ये अपनी गौरवशाली संस्कृति पर अभिमान कर रहा था , उस पीड़ादायक समय में भी इस धरती ने अपने गर्भ से तुलसी,कबीर,विवेकानंद,दयानंद जैसे विद्वानों ,प्रताप,शिवा जी सुभाष-भगत सिंह जैसे वीर उत्पन्न कर दिए पर आज यह एक भी सपूत उत्पन्न करने मैं अक्षम हो गयी है । जो काम विदेशी नहीं कर सके उसे यही के सच्चे सपूतों ने कर दिया भारत को उसकी जड़ों से काट दिया।
आज आप 10 जगह से फटी जींस पैंट पहन दिल्ली या मुंबई भ्रमण कर लो कोई आपकी और देखेगा भी नहीं पर यदि आप कुर्ता-पायजामा या धोती पहन कर निकल गए तो पूरा शहर आपको यूँ देखेगा की मानो या तो आप बहुत बड़े वीर हो या अव्वल दर्जे के पागल । टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाले तो सराहे भी जायेंगे पर अगर गलती से आप अच्छी हिंदी बोल लेते हो तो फिर तो बन गए आप व्यंग्य के पात्र । 121 करोड़ के देश में आज संस्कृत बोलने वालों की संख्या है बमुश्किल 50000 ,अपनी संस्कृति को छोड़ हम वाकई विकास कर रहे है।अपनी पहचान भूल कौन सा विकास हासिल करना चाहते है हम?
जल्द ही हम 9-10 फीसदी की विकास दर हासिल कर लेंगे पर वो बस 1 देश बन राष्ट्र तो कब का अपनी संस्कृति को तलाशते हुए नष्ट हो चूका होगा । शायद तब हम वापस लौटना चाहे , शायद न लौटना चाहे पर एक बात तो तय है और वो है हमारा पछताना लेकिन प्रायश्चित संभव न होगा ।इसी पर किसी शायर ने लिखा भी है
"कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी " किसी ने कहा था । 1092 ई. पृथ्वीराज चौहान की हार के साथ ही यह देश विदेशियों के हाथों में चला गया मुक्ति मिली 1947 में। 855 वर्ष की ग़ुलामी जिसमे यवनों ,मुगलों,यूरोपियों ने हमे बेरहमी से लुटा हमारी संस्कृति को मिटाने की कोशिश की पर सफल न हो सके । गर्व से अपना उन्नत मस्तक उठाये ये अपनी गौरवशाली संस्कृति पर अभिमान कर रहा था , उस पीड़ादायक समय में भी इस धरती ने अपने गर्भ से तुलसी,कबीर,विवेकानंद,दयानंद जैसे विद्वानों ,प्रताप,शिवा जी सुभाष-भगत सिंह जैसे वीर उत्पन्न कर दिए पर आज यह एक भी सपूत उत्पन्न करने मैं अक्षम हो गयी है । जो काम विदेशी नहीं कर सके उसे यही के सच्चे सपूतों ने कर दिया भारत को उसकी जड़ों से काट दिया।
आज आप 10 जगह से फटी जींस पैंट पहन दिल्ली या मुंबई भ्रमण कर लो कोई आपकी और देखेगा भी नहीं पर यदि आप कुर्ता-पायजामा या धोती पहन कर निकल गए तो पूरा शहर आपको यूँ देखेगा की मानो या तो आप बहुत बड़े वीर हो या अव्वल दर्जे के पागल । टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाले तो सराहे भी जायेंगे पर अगर गलती से आप अच्छी हिंदी बोल लेते हो तो फिर तो बन गए आप व्यंग्य के पात्र । 121 करोड़ के देश में आज संस्कृत बोलने वालों की संख्या है बमुश्किल 50000 ,अपनी संस्कृति को छोड़ हम वाकई विकास कर रहे है।अपनी पहचान भूल कौन सा विकास हासिल करना चाहते है हम?
जल्द ही हम 9-10 फीसदी की विकास दर हासिल कर लेंगे पर वो बस 1 देश बन राष्ट्र तो कब का अपनी संस्कृति को तलाशते हुए नष्ट हो चूका होगा । शायद तब हम वापस लौटना चाहे , शायद न लौटना चाहे पर एक बात तो तय है और वो है हमारा पछताना लेकिन प्रायश्चित संभव न होगा ।इसी पर किसी शायर ने लिखा भी है
"तेरी तबाही की नश्तर
निकले है आसमानों से
संभल जाओ ऐ हिन्दुस्तान वालो
वर्ना ढूंढे न मिलोगे फसानों में "