स्वप्न की बेला टूटेगी कब
पौरुषता जागेगी कब|
आशंका के बादल ठीठकेंगे कब
ये भयावरण उतरेगा कब ||
मानवता चीखी थी जब
लोकतंत्र रोया था जब |
अत्याचार मुस्काया था जब
देख बेटे की लाश माँ रोई थी जब ||
अन्याय वेला घिर आई है अब
लगता पाप से हारा है पुण्य अब |
एक बिजली सी कौंधी है अब
न बैठेंगे अब खामोश हम ||
अब हैं खड़े भयावरण को उतार सब
देखते हैं अब सीधे आँखों में आँखें डाल सब ||
हैं हाथो में हाथ डाले तैयार सब
निर्वस्त्र माँ को पहनाएंगे अब वस्त्र सब||
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