वह चलती है इतराती सी
इठलाती , मदमाती सी ।
छिड़ती , नित ही जाती है ,
दिलफेकों कि आवारगी , वो
हँस हँस सहते जाती है ॥
वो रोज ही घर से जाती है
औ अहले सुबह ही आ पाती है ।
धंधे पे उसके आपत्ति है
इन कर्णधार रखवालों को ,
क्योंकि , वो लाज़ बेच सुख पाती है ॥
लेकिन बेच खुद को ही तो
पाल , परिवार वो अपना पाती है ।
गो खुद को वो समझाती है कि ,
जो रहना जिन्दा मज़बूरी है तो
कुछ भी करना पड़ता है ॥
लेकिन पथरायी , नुंचायी देह की
वह रूह सवाल कर जाती है ,
"जो देह बेचने पर अधिकार नहीं तो ,
खरीदने पर , है क्यों सम्मान यहाँ" ??
वह देह नुचवाते जाती है
और पेटों को भरते जाती है ।
आँखों में उपहास भर वो
हम सब को देखती जाती है
और पूछने पर नाम , खुद को
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