The power of thought

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Monday, January 6, 2014

वेश्या

वह चलती है इतराती सी 
इठलाती , मदमाती सी । 
छिड़ती , नित ही जाती है ,
दिलफेकों कि आवारगी , वो 
हँस हँस सहते जाती है ॥ 

वो रोज ही घर से जाती है 
औ अहले सुबह ही आ पाती है । 
धंधे पे उसके आपत्ति है 
इन कर्णधार रखवालों को ,
क्योंकि , वो लाज़ बेच सुख पाती है ॥ 

लेकिन बेच खुद को ही तो 
पाल , परिवार वो अपना पाती है । 
गो खुद को वो समझाती है कि ,
जो रहना जिन्दा मज़बूरी है तो 
कुछ भी करना पड़ता है ॥ 

लेकिन पथरायी , नुंचायी देह की 
वह रूह सवाल कर जाती है  ,
"जो देह बेचने पर अधिकार नहीं तो ,
खरीदने पर , है क्यों सम्मान यहाँ" ??

वह देह नुचवाते जाती है 
और पेटों को भरते जाती है ।
आँखों में उपहास भर वो 
हम सब को देखती जाती है  
और पूछने पर नाम , खुद को 
वो "वेश्या " बतलाती है  ॥

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