The power of thought

The power of thought

Thursday, September 19, 2013

कौन

हर दिन, हर पल हर सांस 
अब बस आता एक सवाल है 
कि मैं तेरा व तू मेरी कौन है ?

तू मेरी कौन यह जानता हूँ ,
इस संसार को हूँ सकता बतला कि 
तू मेरी जान ,मेरा विश्वास मेरा अभिमान है । 
मैं रण में मूर्छित लक्ष्मण ,तू 
मेरे प्राण वो संजीवनी है । 
मैं रेत पर तड़पती मछली , व 
मेरी तू ज़िन्दगी वो पानी है । 
अब भटकता मैं शरीर , मेरी तू रूह है । 
जिसे हूँ मैं चाहता, तू ही मेरी वह महबूब है । 
मैं हूँ सा एक सुहागन ,मेरा तू श्रृंगार है । 

फिर भी है मेरा दिल पूछता मुझसे,
"बता वो तेरी कौन है ?"

तब कहता हूँ उससे कि ,जैसे 
ग्रहों को सूर्य,वर्षा को मेघ व् जीवन को जल 
अनिवार्य है , ठीक वैसे ही 
"मेरे इस जीवन का अब तू आधार है । "
पूछता फिर वो नादान है कि तो 
"मैं तेरा कौन हूँ " जो बता पाना आसान है 
उसे हूँ समझाता कि 
"वो चाँद मैं उसका चकोर, वह आग मैं पतंगा हूँ  । 
है वो शमा मैं परवाना , वह धूल और मैं बूंद हूँ  । 
वह तितली मैं फूल , वह कमल मैं गुंजायमान हूँ । 
मैं जीवन वह सांस , वह ऋचा और मैं उसका पाठ हूँ  । "

अब वो है जानता की तू मेरी कौन है 
लेकिन बात ये अब भी रही अधूरी है ,क्युकी 
मेरी ज़िन्दगी में बाकी अब भी 
लिखी जानी , तेरी कहानी है ॥ 



Saturday, September 14, 2013

अबूझा

"हद है भाई , इतनी भीड़ में ये लोग जो देख भी नहीं सकते ,  कैसे घुसे चले आते है सफ़र करने को ? और तिस पर इनके परिवार वाले इन्हें दिल्ली जैसी जगह में अकेले कैसे भेज सकते हैं ? किसी ने ठेका थोड़े ही ले रखा है , इन अन्धो का । " दिल्ली की बस में सफ़र करता हुआ वह १ अंधे की असहजता पर भड़का हुआ था, और उसे यह भी नहीं पता की वो आखिर भड़का क्यों ?
जवाब उसे थोड़ी देर में सारे सवालों का खुद ही मिल गया , जब बस स्टैंड से उस अंधे को उसके घर तक वह हाथ पकड़ छोड़ आया ॥

Sunday, September 8, 2013

पर्व : सम्बन्ध या स्वार्थ

                                                 

"सजना है मुझे सजना के लिए "  क्यों भाई , सजनी के लिए सजना क्यूँ नहीं सज सकते ? मुझे भी नहीं पता । खैर सवाल यह नहीं , सवाल मान्यताओं का है । तीज जो आज एक दिव्य पर्व रूप में मनाया जा रहा है , सिर्फ महिलाओं के लिए ही क्यों ? क्यों सिर्फ महिलाओं को ही उनके पतियों की लम्बी उम्र की कामना हो । आखिर ये पति लोग अपनी पत्नी की लम्बी उम्र क्यों नहीं चाहते ? बड़ा ही हास्यास्पद सवाल , पर जवाब क्या होगा ?
 पुरानी मान्यता है जी, … वगैरा -वगैरा  । तो जी पुरानी है तो हम अभी तक क्यों ढो रहे है ?
चीज़ें अच्छी कितनी भी रही हो , पुरानी तो कूड़े में ही जाती है न , वर्ना सड़ांध आनी तय है । हद है , अपने प्राण से प्यारों को भी उनके प्राण निकलने के बाद हम जला आते है , तो इन विचारों को क्यों पाले रख समाज को सड़ा सूंघा रहे है ।
मेरे पिछले विचार पर बड़ी गालियाँ पड़ी, पर मजा तो इस बात का आया की महिलाओं की तरफ से । पुरुषों को तो फर्क भी नहीं पड़ता ।
और एक सवाल यह भी की आखिर जब मेरे बीमार होने पर दवाई मुझे ही खानी पड़ेगी तो यहाँ पत्नी के खुद को कष्ट पहुँचाने से पति की आत्मा को थोड़ी जमानत कैसे मिल जाती है । हो सकता है अपनी सबला पत्नी को शांत देख सुकून से । पर गंभीरता तो कहती है की यह मंथन का विषय है । क्या यह आज भी औरतों को  दोयम दर्जे का ही मानने का संकेत नहीं ? और आश्चर्य तो इस बात का की आज की आधुनिक नारी भी इस अवैज्ञानिक …… क्या ? अवैज्ञानिक नहीं ? तो ठीक है फिर तो पुरुषों को भी करना चाहिए , आखिर कोई महिला उस पुरुष के लिए क्यों भूखी रहे जो उसकी लम्बी उम्र नहीं चाहता । " तुम मेरे लिए भूखे रहो मैं तुम्हारे लिए । ""तुम मेरी उम्र लम्बी करो , मैं तुम्हारी " और अगर कोई पति इस पर तैयार नहीं होता तो जाये चूल्हे में ऐसा पति , उसके लिए क्यों खुद को कष्ट देना , उसके लिए अपना घर छोड़ आयी जो तुम्हे जिंदा ही नहीं देखना चाहता ।
पर जब तक महिलाएं खुद ही खुद को इन बेड़ियों में जकड़े रखेंगी तो वो सशक्तिकरण की बात भी कैसे कर सकती है ? इनको नकारना संवेदनाओं या संबंधों को नकारना नहीं , जो हमारी संस्कृति की पहचान है , बल्कि साधारण मानवता है । और शर्म तो उस पुरुष वर्ग को आनी चाहिए जो खुद को जीवित रखने हेतु अपनी पत्नी को मार रहा है । और अगर इस व्रत के न होने से उम्र थोड़ी कम भी हो गयी तो किस बात का गम , इसकी ख़ुशी तो रहेगी " ताउम्र खुशियों का जिससे वादा किया था , उसे खुद के स्वार्थ को कभी भूखा नहीं रहा ।" 

Sunday, September 1, 2013

आसमां भी झुकता है

"सरकार की नीतियाँ हमेशा सही होती है , और हम उसकी आलोचना करने की क्षमता में नहीं" ऐसा हमेशा ही मुझे समझाया गया था | और किसी एक अकेले इंसान के लिए सरकार को उसकी गलती का एहसास करवाना , नामुमकिन है , मुझे यह भी समझाया गया था | पर इन दो दिनों में जो कुछ भी हुआ उसने मुझे अपनी यह कहानी आप सबको बताने को मजबूर कर दिया |
 डेल्ही पब्लिक लाइब्रेरी (Delhi Public Library) के साथ उनकी नीतियों के खिलाफ 2011 में मैंने जो अभियान प्रारंभ किया था वो अंततः सफल हुई । और संस्था ने अपने दरवाज़े सभी के लिए खोल दिये ,उन मानदंडो को सुझाते हुए जो मैंने उन्हें तब सुझाये थे ।  इस क्रम में न जाने कितना समय व्यतीत हुआ , और लगभग अकेले ही सफ़र तय करना पड़ा । जिन तथाकथित बुद्धिजीवों से सहयता मांगी कुछ ने मुझे ही गलत कहा तो कुछ ने मदद के बदले मेहनताने की मांग रख दी । संघर्ष लम्बा है सो पूरा नहीं लिख रहा , पर जैसा मेरे मित्रों ने कहा इस बात का पता सबको चले सो विचारों के इस सागर में अपनी यह बोतल तैरा रहा हूँ , जिसे भी मिले वह समझे उसे क्या करना है ।
कुल जमा एक बात समझ में आई , 1951 से जो भेदभाव पूर्ण नीति चल रही थी वो 2013 में एक सामान्य आम आदमी के विरोध मात्र से परिवर्तित हो गयी , "एक राष्ट्रीय स्तर पर धमाका हुआ , बिना आवाज " । पर एक बात तो स्पष्ट हुई , यदि हम सही हो तो आसमां को भी झुकना ही पड़ता है ।
और इसका एक श्रेय मैं RTI को भी देना चाहूँगा ।