The power of thought

The power of thought

Tuesday, February 26, 2013

क्योंकि यह कलियुग है

कहानियाँ जन्म लेती हैं एवं लेती रहेंगी । हर कहानी चाहे वह कितनी ही कल्पना से परे क्यूँ न हो कहीं न कहीं, कोई न कोई वास्तविकता उसके पिता होने का दावा पेश कर सकती है ।
यह कहानियाँ एवं प्रसंग ही है जो अपने आप में एक पीढ़ी की विरासत समेट अगली पीढ़ी को प्रदान करते हैं । मुझे नहीं पता रामायण,महाभारत की घटनाएं वास्तविक हैं या नहीं । परन्तु इन्होने उन युगों की विरासतों को न जाने कितनी पीढ़ियों तक पहुँचाया है और न जाने कब तक पहुंचाते रहेगी ? जब तक जीवन है तब तक !!
दोनों महागाथाओं के केंद्र में दो ही विषय रहे , स्त्रियों का अपमान । शूर्पनखा,सीता,अम्बा एवं द्रौपदी का । मात्र इन चार स्त्रियों के अहम् , शील ,विचार,प्रेम एवं लाज पर आघात ने असंख्य प्राणों का हरण कर लिया । पर आज जब हर क्षण किसी नारी का अपमान व् शील भंग हो रहा है तो इसका  प्रति-उत्तर क्या प्राप्त हो रहा है ? "आक्रोश" जो दूध के उस उफान से अधिक कुछ भी नहीं जो पानी की कुछ बूंदों से शांत हो जाता हो । "समितियां" जिनकी रिपोर्ट न जाने कहाँ गुम होने के लिए ही लिखी जाती है ।
परन्तु एक स्त्री की इज्ज़त का मूल्य क्या हो ? यह कौन निर्धारित करेगा ? बिना इजाजत कोई किसी का स्पर्श भी बर्दाश्त नहीं करता, पर जिसके साथ उसकी मर्ज़ी के खिलाफ बलात कार्य किया जाये उसकी मानसिक दुर्दशा की क्षतिपूर्ति क्या हो ? सीता के हरण के बाद रावण के पास एक मौका था, सीता को लौटा संधि का ,वह त्रेता था । द्रौपदी अपमान के बाद दुर्योधन के पास और भी अधिक सरल उपाय था । उसे बस पांडवों को उनका ही राज्य सौंपना था , वह द्वापर था ।
आज तो यह मुट्ठियों में है ।
दिल्ली की बलात्कार पीडिता का मुआवजा दिल्ली में एक मकान । यह एक कदम है ,सराहनीय या नहीं मैं निर्धारित नहीं कर सकता , परन्तु जब एक पीडिता के परिवार को यह क्षतिपूर्ति दिया जा रहा है तो न जाने इस राष्ट्र ,प्राचीन जगद्गुरु की माटी में ऐसी कितनी ही निर्भया आत्मा विहीन जीवन जी रहीं होंगी । उन का क्या कसूर ?
पटना में भी एक पीडिता को उसके बलात्कार का मुआवजा दिया गया ,500 रुपये । यह आज का विधान है , क्योंकि यह कलियुग है ।  

Tuesday, February 5, 2013

मैं , केवल मैं

सामने जो प्रतिरूप है 
जो आईने में होता साकार है 
क्या वह  मैं हूँ ?

क्रोध,दर्प,अभिमान 
मोह,लोभ,पीड़ा 
पाने का सम्मान 
गंवाने का अपमान 
जिस सीने में है भरा,
क्या , वह है मेरा ही ?

इस शरीर में जो है  
करता विश्वास होने का 
इस नश्वर का स्वामी ,
क्या वह मैं ही हूँ ?

अवसर,मौके , बारी 
का जो बेइंतहा से 
कर रहा हो इंतजार 
खुद की दुनिया में ही 
मगन बाहर से है बेखबर 
वह एहसास क्या मैं ही हूँ ?

या, हूँ मैं विश्वास !
ब्रम्हाण्ड की सूक्ष्मता से 
कणों की विशालता में 
मिल रहा जो तत्व है ,
क्या वह मेरा है ?

यह जो भी है , वह क्या है ?
है वह क्या मेरा , या हूँ मैं कुछ उसका ?

प्रश्न तो यह है की -
मैं क्या हूँ और क्यूँ हूँ ?