The power of thought

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Friday, August 17, 2012

प्राणों की चिंता

 ये दुनिया बलिदान चाहती है ।प्रत्येक परिवर्तन किसी न किसी की शहादत पर ही निर्भर करता है और परिवर्तन लाने की कोशिश करने वालों को खुद अपनी जान बचने का तो सोचने का भी हक नहीं ।
जी नहीं,ये पंक्तियाँ किसी बहुत बड़े विचारक ने नहीं कही ये उद्गार है दुनिया का,इसमें रहने वालों का,हमारा ।
नहीं,न ये क्या कह रहे हो ?? अजी छोड़िये ये बहाने ।
आज के समाचार-पत्रों की एक सुर्खी  है"असान्जे के बारे में " जिसे पढते ही मुझे पुराने दिन याद आ गये जब असान्जे ने शरण के लिए आवेदन कर रखा था। बड़े बड़े विद्वानों का उससे तुरंत ही मोह भंग हो गया ।
"अजी बोलिए जरा ,ये भी कोई बात हुई जरा से प्राण संकट में दिखे तो निकल गयी सारी बहादुरी "
"उसे कम से कम ऐसा कोई कायरता भरा कम नही करना चाहिए था ""
बिलकुल कोई भी जो ऐसा कोई संघर्ष कर रहा हो अपने प्राणों के बारे में सोचने की मुर्खता भी कैसे कर सकता है।अजी ये तो पापी है जो अपने बारे में  भी सोच ले।हमारी बात अलग है हम सिर्फ अपनी ही चिंता करेंगे देश,दुनिया जाये जले अपनी बला से।
कुछ ऐसा ही नजरिया रामदेव के भक्तों का हो गया था जब रामदेव तथाकथित रूप से अपने प्राण बचाने को  स्त्री-वेष धर नाकाम चेष्टा कर रहे थे  और पुनः फिर उनके सहयोगी आचार्य बालकृष्ण के प्रति जब वो अपने प्राण बचाते बचाते किसी तरह आश्रम पहुंचे ।
न हमें संतोष नहीं हुआ भला किसी सन्यासी को अपने प्राणों की क्या चिंता?? अरे भले मानुष प्राणों की चिंता तो देवताओं को भी हुआ करती है जो उन्हें संकट में पा जा पहुंचते है  विष्णु के सम्मुख । देवाधिदेव महादेव भी तो भस्मासुर से प्राण बचाने हेतु विष्णु को पुनः सुंदरी बना बैठे थे।कोई कथा सुनाने या किसी का पक्ष लेने का कतई भी कोई इरादा नहीं तो बस उन कुछ लोगो का पक्ष रख रहा हूँ जो अपने प्राणों की चिंता करते हुए भी इस दुनिया व् समाज के बारे में सोचने का हौंसला तो रखते है । और रही बात की उन्हें प्राणों की चिंता क्यों?? तो कारण तो हम खुद ही है ...जिन्होंने आज़ादी के लिए अपने प्राण दे दिए आज कितना याद रखते है हम उन्हें ....एक स्मारक किसी गली के मोड़ पर, बस। उन सब का परिवार आज दाने दाने को तरस रहा है..और हाँ जो शहीद नहीं हुए उनके बारे में कुछ कहने को मेरा मन नहीं ।।
तो बंधू जब हम खुद कुछ नहीं कर रहे सिवाय नारे लगाने के तो जो कर रहे हैं उन्हें अपने प्राणों की चिंता की इजाजत भी दे ही देते हैं ........क्यूँ??

Wednesday, August 15, 2012

स्वतंत्रता दिवस:याद का बोझ

स्वतंत्रता दिवस ! हर वर्ष यह शुभ दिन आता है और हर जिम्मेदार भारतीय की तरह मैं भी सुबह से सन्देश व मिठाइयाँ वितरण एवं प्राप्ति हेतु प्रयास करता हूँ ।पर एक प्रश्न जो पिछले कई वर्षो की तरह इस वर्ष भी मेरे सम्मुख है ,आज मैं आप सबके सामने भी रखता हूँ "क्या स्वाधीनता दिवस सिर्फ खुशियाँ ही लेकर आता है या इसके पीछे कोई अत्यंत ही गूढ़ भाव भी छुपा हुआ है ?"
क्या ये दिन बस ये याद करने को है की हम आज के दिन ही आज़ाद हुए थे या ये हमें यह भी सोचने पर विवश करता है की हम गुलाम ही क्यूँ कर हुए थे? अगर यह सिर्फ आज़ादी का जश्न भर ही है तो क्या ये वाकई में उचित है ?
नहीं , मैं इस उत्सव के खिलाफ बिलकुल भी नहीं पर मैं यह जानना चाहता हूँ की जिस तरह से हम इस पर्व को सम्पन्न करते हैं क्या वो ही उचित है या आज गुलामी से मुक्ति के इतने वर्षो बाद शायद हम यह पर्व किसी और तरीके से मनाना चाहे ।
इस वर्ष फिर से बहस होगी"यह आज़ादी हमें बिना खड्ग-ढाल के मिली या नहीं? ""भगत सिंह या गाँधी ?" पर यह बहस शायद ही कहीं हो "आखिर यह राष्ट्र दासता की जंजीरों में जकड़ा ही क्यूँ ? ""क्यूँ हम पर एक के बाद एक विदेशी हुकूमत थोपी जाती रही और हम  उसे स्वीकारते रहे ?""जो हमें 1857 में ही मिल जाना चाहिए था उसके लिए 1947 तक 90 वर्षों का सफ़र क्यूँ तय किया गया "
मैं अपने हर भारतीय मित्र को शुभ-कामनाएं तो दे देता हूँ पर विदेशी मित्रो को इस दिन की महत्ता बताने में न जाने क्यों एक संकोच सा होता है ? शायद इसलिए क्योंकी उन्हें फिर यह भी याद दिलाना पड़ता है की हाँ कभी जगद्गुरु रहे इस राष्ट्र को छोटे से टापू पर रहने वाले मुट्ठी भर लोगो ने अपने कदमो तले रौंद रखा था ।
शायद हम इस संकोच से कभी  उबर न सके पर उन कारणों पर सार्थक विचार कर अपने वंशजों को कम से कम इस संकोच के भार की कुछ पोटलियाँ हलकी कर सकते है ।

                                                             जय हिंद 

                                                           वन्दे-मातरम